महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-3

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ और प्रकृति-पुरुष का वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13


सम्बन्ध गीता के बारहवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था, उसका उत्तर देते हुए भगवान ने दूसरे श्लोक में संक्षेप में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके तीसरे से पांचवे श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियों के लिये उनके अनुष्ठान में कठिनता का निरूपण किया। तदनन्तर छठे से बीसवें श्लोक सगुण उपासना महत्त्व, फल, प्रकार और भगवद्भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते करते ही अध्याय की समाप्ति हो गयी; निर्गुण का तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधनों को विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया। अतएव निर्गुण निराकार का तत्त्व अर्थात ज्ञान योग्य विषय भलीभाँति समझने के लिये तेरहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले भगवान क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के लक्षण बतलाते हैं- श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’[1] इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’[2] इस नाम से उनके तत्त्वों को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।

हे अर्जुन! तु सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान[3] और क्षेत्र-क्षेत्रफल अर्थात विकारसहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है, वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है। सम्बन्ध- क्षेत्र और क्षेत्रफल पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार का नाश हो जाता है। और परमात्मा की प्राप्ति होती है, अतएव ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रफल’ के स्वरूप आदि का भलीभाँति विभागपूर्वक समझाने के लिये भगवान कहते हैं। वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन- सम्बन्ध- तीसरे श्लोक में ‘क्षेत्र’ और क्षेत्रज्ञ में जिस तत्त्व को संक्षेप में सुनने के लिये भगवान ने अर्जुन से कहा- तब उसके विषय में ऋषि, वेद, और ब्रह्मसूत्र की उक्ति का प्रमाण देकर भगवान ऋषि, वेद, और ब्रह्मसूत्र को आदर देते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे खेत में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इस शरीर में बोये हुए कर्म-संस्कार रूप बीजों का कुछ भी फल समय पर प्रकट होता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, इसलिये भी इसे ‘क्षेत्र’ कहते हैं और इसीलिये गीता के पन्द्रहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में इसका ‘क्षर’ पुरुष कहा गया है।
  2. इसके भगवान ने अंतरात्मा द्रष्टा का लक्ष्य करवाया है। मन, बुद्धि, इंद्रिय, महाभूत और इंद्रियों के विषय आदि जितना भी श्रय (जानने में आने वाला) दृश्यवर्ग है- सब जड़, विनाशी, परिर्वतनशील है। चेतन आत्मा उस जड़ हृदयवर्ग से सर्वथा विलक्षण है। यह उसका ज्ञाता है, उसमें अनुस्यूत है और उनका अधिपति है। इसीलिये उसे ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं इसी ज्ञाता को गीता के सातवें अध्याय में ‘परा प्रकृति’ (गीता 7:5) आठवें अध्याय में ‘अध्यात्म’ (गीता 8:9) और पन्द्रवें अध्याय में इसे ‘अक्षर पुरुष’ (गीता 15:16) कहा जाता है। यह आत्मतत्त्व बड़ा ही गहन है, इसी से भगवान ने मित्र-मित्र प्रकरणों के द्वारा कहीं-कहीं स्त्रीवाचक, कहीं नपुंसकवाचक, कहीं पुरुषवाचक नाम से इनका वर्णन किया है। वास्तव में आत्माविकार से सर्वथा, रहित, अलिंग, नित्य, निर्विकार एवं चेतन-ज्ञानस्वरूप है।
  3. इसकी ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ की एकता का प्रतिवादन किया। आत्मा और परमात्मा में वस्तुतः कुछ भी भेद नहींं है, प्रकृति के संग से भेद-सा प्रतीत होता है; इसलिये गीता के दूसरे अध्याय के चौबीसवें और पच्चीसवें श्लोकों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए जिन शब्दों का प्रयोग किया है, बारहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में निर्गुण-निराकार परमात्मा के लक्षणों का वर्णन करते समय भी प्रायः उन्हीं के भावों के घोतक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

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