महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 36 श्लोक 17-20

षट्त्रिंश (36) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 12

जो न कभी हर्षित होता है,[1] न द्वेष करता है,[2] न शोक करता है,[3] न कामना करता है[4] तथा जो शुभ और अशुभ सम्‍पूर्ण कर्मों का त्‍यागी है,[5] वह भक्तियुक्‍त पुरुष मुझको प्रिय है। जो शत्रु-मित्र में[6] और मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्‍द्वों में सम है[7] और आसक्ति से रहित है। जो निंदा-स्‍तुति को समान समझने वाला,[8] मननशील[9] और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्‍ट है[10] तथा रहने के स्‍थान में ममता और आसक्ति से रहित है, वह स्थिर बुद्धि[11] भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है।[12]

संबंध- परमात्मा को प्राप्‍त हुए सिद्ध भक्तों के लक्षण बतलाकर अब उन लक्षणों को आदर्श मानकर बड़े प्रयत्न के साथ उनका भलीभाँति सेवन करने वाले, परम श्रद्धालु, शरणागत भक्तों की प्रशंसा करने के लिये, उनको अपना अत्‍यंत प्रिय बतलाकर भगवान इस अध्‍याय का उपसंहार करते हैं। परंतु जो श्रद्धायुक्‍त पुरुष मेरे परायण होकर[13] इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को[14] निष्‍काम प्रेम-भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।[15]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवतद्गीतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या और योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में भक्तियोग नामक बारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ॥12॥ भीष्‍मपर्व में छत्‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भक्त के लिये सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, परम दयालु भगवान ही परम प्रिय वस्‍तु हैं और वह उन्‍हें सदा के लिये प्राप्‍त है। अतएव वह सदा-सर्वदा परमानंद में स्थित रहता है। संसार की किसी वस्‍तु में उसका किंचिन्‍मात्र भी राग-द्वेष नहीं होता। इस कारण लोकदृष्टि से होने वाले किसी प्रिय वस्‍तु के संयोग से या अप्रिय के वियोग से उसके अंत:करण में कभी किंचिन्‍मात्र भी हर्ष का विकार नहीं होता।
  2. भगवान का भक्त सम्‍पूर्ण जगत को भगवान का स्‍वरूप समझता है, इसलिये उसका किसी भी वस्‍तु या प्राणी में कभी किसी भी कारण से द्वेष नहीं हो सकता। उसके अंत:करण में द्वेषभाव का सदा के लिये सर्वथा अभाव हो जाता है।
  3. अनिष्‍ट वस्‍तु की प्राप्ति में और इष्‍ट के वियोग में प्राणियों को शोक हुआ करता है। भगवद्भक्त को लीलामय परम दयालु परमेश्वर की दया से भरे हुए किसी भी विधान में कभी प्रतिकुलता प्रतीत ही नहीं होती। अत: उसे शोक कैसे हो सकता है?
  4. भक्त को साक्षात भगवान की प्राप्ति हो जाने के कारण वह सदा के लिये परमानंद और परम शांति में स्थित होकर पूर्णकाम हो जाता है, उसके मन में कभी किसी वस्‍तु के अभाव का अनुभव होता ही नहीं, इसलिये उसके अंत:करण में सांसारिक वस्‍तुओं की आकांक्षा होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।
  5. यज्ञ, दान, तप और वर्णाश्रम के अनुसार जीविका तथा शरीर-निर्वाह के लिये किये जाने वाले शास्त्रविहित कर्मों का वाचक यहाँ ‘शुभ’ शब्‍द है और शूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्‍यभिचार आदि पापकर्म का वाचक ‘अशुभ’ शब्‍द है। भगवान का ज्ञानी भक्त इन दोनों प्रकार के कर्मों का त्‍यागी होता है; क्‍योंकि उसके शरीर, इन्द्रिय और मन के द्वारा किये जाने वाले समस्‍त शुभकर्मों को वह भगवान के समर्पण कर देता है। उनमें उसकी किंचिन्‍मात्र भी ममता, आसक्ति या फलेच्‍छा नहीं रहती; इसलिये ऐसे कर्म कर्म ही नहीं माने जाते (गीता 4:20) और राग द्वेष का अभाव हो जाने के कारण पापकर्म उसके द्वारा होते ही नहीं, इसलिये उसे ‘शुभ और अशुभ कर्मों का त्‍यागी’ कहा गया है।
  6. यद्यपि भक्त की दृष्टि में उसका कोई शत्रु-मित्र नहीं होता, तो भी लोग अपनी-अपनी भावना के अनुसार मूर्खतावश भक्त के द्वारा अपना अनिष्‍ट होता हुआ समझकर या उसका स्‍वभाव अपने अनुकूल न दिखने के कारण अथवा ईर्ष्‍यावश उसमें शत्रुभाव का भी आरोप कर लेते हैं, ऐसे ही दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार उसमें मित्रभाव का आरोप कर लेते हैं; परंतु सम्‍पूर्ण जगत में सर्वत्र भगवान के दर्शन करने वाले भक्त का सबमें सम्‍भाव ही रहता है। उसकी दृष्टि में शत्रु-मित्र का किंचित भी भेद नहीं रहता, वह तो सदा-सर्वदा सबके साथ परम प्रेम का ही व्‍यवहार करता रहता है। सबको भगवान का स्‍वरूप समझकर समभाव से सबकी छाया सेवा करना ही उसका स्‍वभाव बन जाता है। जैसे वृक्ष अपने को काटने वाले और जल सींचने वाले दोनों को ही छाया, फल ओर फूल आदि के द्वारा सेवा करने में किसी प्रकार का भेद नहीं करता, वेसे ही भक्त में भी किसी तरह का भेदभाव नहीं रहता। भक्त का समत्‍व वृक्ष की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व का होता है। उसकी दृष्टि में परमेश्वर से भिन्‍न कुछ भी न रहने के कारण उसमें भेदभाव की आशंका ही नहीं रहती। इसलिये उसे शत्रु-मित्र में सम कहा गया है।
  7. मान-अपमान, सरदी-गरमी, सुख-दु:ख आदि अनुकूल ओर प्रतिकूल द्वन्‍द्वों का मन, इन्द्रिय और शरीर के साथ संबंध होने से उनका अनुभव होते हुए भी भगवद्भक्त के अंत:करण में राग-द्वेष या हर्ष-शोक आदि किसी तरह का किंचिन्‍मात्र भी विकार नहीं होता। वह सदा सम रहता है।
  8. भगवान के भक्त का अपने नाम और शरीर में किंचिन्‍मात्र भी अभिमान या ममत्‍व नहीं रहता। इसलिये न तो उसको स्‍तुति से हर्ष होता है और न निंदा से किसी प्रकार का शोक ही होता है। उसका दोनों में ही समभाव रहता है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने के कारण स्‍तुति करने वालों और निंदा करने वालों में भी उसकी जरा भी भेद-बुद्धि नहीं होती। यही उसका निंदा-स्‍तुति को समान समझना है।
  9. मनुष्‍य केवल वाणी से ही नहीं बोलता, मन से भी बोलता रहता है। विषयों का अनवरत चिंतन ही मन का निरंतर बोलना है। भक्त का चित्‍त भगवान में इतना संलग्‍न हो जाता है कि उसमें भगवान के सिवा दूसरे की स्‍मृति ही नहीं होती, वह सदा-सर्वदा भगवान के ही मनन में लगा रहता है; यही वास्‍तविक मौन है। बोलना बंद कर दिया जाय और मन से विषयों का चिंतन होता रहे- ऐसा मौन बाह्य मौन है। मन को निर्विषय करने तथा वाणी को परिशुद्ध और संयत बनाने के उद्देश्‍य से किया जाने वाला बाह्य मौन भी लाभदायक होता है; परंतु यहाँ भगवान के प्रिय भक्त के लक्षणों का वर्णन है, उसकी वाणी तो स्‍वाभाविक ही परिशुद्ध और संयत है। इससे ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसमे केवल वाणी का ही मौन है; बल्कि उस भक्त की वाणी से तो प्राय: निरंतर भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन ही हुआ करता है, जिससे जगत का परम उपहार होता है। इसके सिवा भगवान अपनी भक्ति का प्रचार भी भक्तों द्वारा ही करवाया करते हैं। अत: वाणी से मौन रहने वाला भगवान का प्रिय भक्त होता है और बोलने वाला नहीं होता, ऐसी कल्‍पना नहीं की जा सकती। गीता के अठाहरवें अध्‍याय के अड़सठवें और उनहत्तरवें श्लोक में भगवान ने गीता के प्रचार करने वाले को अपना सबसे प्रिय कार्य करने वाला कहा है, यह महत्त्व कार्य वाणी के मौनी से नहीं हो सकता। इसके सिवा गीता के सत्रहवें अध्‍याय के सोलहवें श्लोक में मानसिक तप के लक्षणों में भी ‘मौन’ शब्‍द आया है। यदि भगवान को ‘मौन’ शब्‍द का अर्थ वाणी का मौन अभीष्‍ट होता तो वे उसे वाणी के तप के प्रसंग में कहते; परंतु ऐसा नहीं किया, इससे भी यही सिद्ध है कि मुनिभाव का नाम ही मौन है और यह मुनिभाव जिसमें होता है, वही मौनी या मननशील है। वाणी का मौन मनुष्‍य हठ से भी कर सकता है, इसलिये यह कोई विशेष महत्‍व की बात भी नहीं है। अत: यहाँ ‘मौन’ शब्‍द का अर्थ वाणी का मौन न मानकर मन की मनन शीलता ही मानना उचित है। वाणी का संयम तो इसके अंतर्गत आप ही आ जाता है।
  10. भक्त अपने परम इष्‍ट भगवान को पाकर सदा ही संतुष्‍ट रहता है। बाहरी वस्‍तुओं के आने-जाने से उसकी तुष्टि में किसी प्रकार का अंतर नहीं पड़ता। प्रारब्‍धानुसार सुख-दु:खादि के हेतु भूत जो कुछ भी पदार्थ उसे प्राप्‍त होते हैं, वह उन्‍हीं में संतुष्‍ट रहता है।
  11. भक्त को भगवान के प्रत्‍यक्ष दर्शन हो जाने के कारण उसके सम्‍पूर्णसंशय समूल नष्‍ट हो जाते हैं, उसका निश्चय अटल और निश्चल होता है। अत: वह साधारण मनुष्‍यों की भाँति काम, क्रोध, लोभ, मोह या भय आदि विकारों के वश में होकर धर्म से या भगवान के स्‍वरूप से कभी विचलित नहीं होता।
  12. उपर्युक्‍त सभी लक्षण भगवद्भक्तों के हैं तथा सभी शास्त्रानुकूल और श्रेष्‍ठ हैं, परंतु स्‍वभाव आदि के भेद से भक्तों के भी गुण और आचरणों में थोड़ा-बहुत अंतर रह जाना स्‍वाभाविक है। सबमें सभी लक्षण एक-से नहीं मिलते। इतना अवश्‍य है कि समता और शांति सभी में होती है तथा राग-द्वेष और हर्ष-शोक आदि विकार किसी में भी नहीं रहते। इसीलिये इन श्लोकों में पुनरूक्ति पायी जाती है। विचार कर देखिये तो इन पांचों विभागों में कहीं भाव से और कहीं शब्‍दों से राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव सभी में मिलता है। पहले विभाग में ‘अद्वेष्‍टा’ ये द्वेष का, ‘निर्मम:’ से राग का और ‘समदु:ख-सुख:’ से हर्ष-शोक का अभाव बतलाया गया है। दूसरे में हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग का अभाव बतलाया है; इससे राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव अपने-आप सिद्ध हो जाता है। तीसरे में ‘अनपेक्ष:’ से राग का, ‘उदासीन:’ से द्वेष का और ‘गतव्‍यथ:’ से हर्ष-शोक का अभाव बतलाया है। चौथे में ‘न कांक्षति’ से राग का, ‘न द्वेष्टि’ से द्वेष का, ‘न ह्यष्‍यति’ तथा ‘न शोचति’ से हर्ष-शोक का अभाव बतलाया है। इसी प्रकार पांचवें विभाग में ‘सड्गविवर्जित:’ तथा ‘संतुष्‍ट:’ से राग-द्वेष का और ‘शीतोष्‍णसुखदु:खेषु सम:’ से हर्ष-शोक का अभाव दिखलाया है। ‘संतुष्‍ट:‘ पद भी इस प्रकरण में दो बार आया है। इससे सिद्ध है कि राग-द्वेष तथा हर्ष-शोकादि विकारों का अभाव और समता तथा शांति तो सभी में आवश्‍यक हैं। अन्‍यान्‍य लक्षणों में स्‍वभाव-भेद से कुछ भेद भी रह सकता है। इसी भेद के कारण भगवान ने भिन्‍न-भिन्‍न श्रेणियों में विभक्त करके भक्तों के लक्षणों को यहाँ पांच बार पृथक-पृथक बतलाया है; इनमें से किसी एक विभाग के अनुसार भी सब लक्षण जिसमें पूर्ण हों, वही भगवान का प्रिय भक्त है।
    इसके सिवा कर्मयोग, भक्तियोग अथवा ज्ञानयोग आदि किसी भी मार्ग से परमसिद्धि को प्राप्‍त कर लेने के पश्चात भी उनकी वास्‍तविक स्थिति में या प्राप्‍त किये हुए परमतत्त्‍व में तो कोई अंतर नहीं रहता; किंतु स्‍वभाव की भिन्‍नता के कारण आचरणों में कुछ भेद रह सकता है। ‘सदृशं चेष्‍टते स्‍वस्‍य: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि’ (गीता 3:33) इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि सब ज्ञानवानों के आचरण और स्‍वभाव में ज्ञानोत्तरकाल में भी भेद रहता है।
    अहंता, ममता और राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि अज्ञानजनित विकारों का अभाव तथा समता और परम शांति- ये लक्षण तो सभी में समान भाव से पाये जाते हैं; किंतु मैत्री और करुणा, ये भक्तिमार्ग से भगवान को प्राप्‍त हुए महापुरुष में विशेष रूप से रहती है। इसी प्रकार मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए अनासक्‍त भाव से कर्मों में तत्‍पर रहना, यह लक्षण विशेष रूप से कर्मयोग के द्वारा भगवान को प्राप्‍त हुए पुरुषों में रहता है।
    गीता के दूसरे अध्‍याय के पचपनवें से बहतरवें श्लोक तक कितने ही श्लोकों में कर्मयोग के द्वारा भगवान को प्राप्‍त हुए पुरुष के तथा चौदहवें अध्‍याय के बाईसवें से पचीसवें श्लोक तक ज्ञानयोग के द्वारा परमात्‍मा को प्राप्‍त हुए गुणा‍तीत पुरुष के लक्षण बतलाये गये हैं और यहाँ तेरहवें से उन्‍नीसवें श्लोक तक भक्तियोग के द्वारा भगवान को प्राप्‍त हुए पुरुषों के लक्षण हैं।
  13. सर्वव्‍यापी, सर्वशक्तिमान भगवान के अवतारों में, वचनों में एवं उनके गुण, प्रभाव, ऐश्‍वर्य और चरित्रादि में जो प्रत्‍यक्ष के सदृश सम्‍मानपूर्वक विश्‍वास रखता हो, वह श्रद्धावान है। परमप्रेमी और परम दयालु भगवान को ही परम गति, परम आश्रय एवं अपने प्राणों के आधार, सर्वस्‍व मानकर उन्‍हीं पर निर्भर और उनके किये हुए विधान में प्रसन्‍न रहने वाले को भगवत्‍परायण पुरुष कहते हैं।
  14. भगवद्भक्तों के उपर्युक्‍त लक्षण ही वस्‍तुत: मानवधर्म का सच्‍चा स्‍वरूप है। इन्‍हीं के पालन में मनुष्‍य-जन्‍म की सार्थकता है, क्‍योंकि इनके पालन से साधन सदा के लिये मृत्‍यु के पंजे से छूट जाता है और उसे अमृतस्‍वरूप भगवान की प्राप्ति हो जाती है। इसी भाव को स्‍पष्‍ट समझाने के लिये यहाँ इस लक्षण-समुदाय का नाम ‘धर्ममय अमृत’ रखा गया है।
  15. जिन सिद्ध भक्तों को भगवान की प्राप्ति हो चुकी है, उनमें तो उपर्युक्‍त लक्षण स्‍वाभाविक ही रहते हैं; इसलिये उनमें इन गुणों का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है; परंतु जिन साधक भक्तों को भगवान के प्रत्‍यक्ष दर्शन नहीं हुए हैं, तो भी वे भगवान पर विश्वास करके परम श्रद्धा के साथ तन, मन, धन, सर्वस्‍व भगवान के अर्पण करके उन्‍हीं के परायण हो जाते हैं तथा भगवान के दर्शनों के लिये निरंतर उन्‍हीं का निष्‍काम भाव से प्रेमपूर्वक चिंतन करते रहते हैं और सतत चेष्टा करके उपर्युक्‍त लक्षणों के अनुसार ही अपना जीवन बिताना चाहते हैं- बिना प्रत्‍यक्ष दर्शन हुए भी केवल विश्वास पर उनका इतना निर्भर हो जाना विशेष महत्त्‍व की बात है। ऐसे प्रेमी भक्तों को सिद्ध भक्तों की अपेक्षा भी ‘अतिशय प्रिय’ कहना उचित ही है।

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