पच्चात्रिंशदधिकद्विशततम (235) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पचंस्त्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
व्यास जी कहते हैं – बेटा! ब्राह्मण को चाहिये कि वेदों में बतायी गयी त्रयी विद्या– ‘अ उ म्’ इन तीन अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाली प्रणव विद्या का चिन्तन एवं विचार करे। वेद के छहों अंगो सहित ऋक, साम, यजुष एवं अर्थव के मन्त्रों का स्वर-व्यंजन के सहित अध्ययन करे; क्योंकि यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह– इन छ: कर्मो में विराजमान भगवान धर्म ही इन वेदों में प्रतिष्ठित हैं। जो लोग वेदों के प्रवचन में निपुण, अध्यात्मज्ञान में कुशल, सत्वगुण सम्पन्न और महान भाग्यशाली हैं, वे जगत की सुष्टि और प्रलय को ठीक-ठीक जानते हैं; अत: ब्राह्मण को इस प्रकार धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए शिष्ट पुरुषों की भाँति सदाचार पालन करना चाहिये। ब्राह्मण किसी भी जीव को कष्ट न देकर – उसकी जीविका का हनन न करके अपनी जीविका चलाने की इच्छा करे। संतों की सेवा में रहकर तत्वज्ञान प्राप्त करे, सत्पुरुष बने और शास्त्र की व्याख्या करने में कुशल हो। जगत में अपने धर्म के अनुकूल कर्म करें, सत्यप्रतिज्ञ बने। गृहस्थ ब्राह्मण को पूवोक्त छ: कर्मो में ही स्थित रहना चाहिये। सदा श्रद्धापूर्वक पंच महायज्ञों द्वारा परमात्मा का पूजन करे, सर्वदा धैर्य धारण करे। प्रमाद (अकर्तव्य कर्म को करने और कर्तव्य कर्म की अवहलेना करने) से बचे, इन्द्रियों को संयम में रखे, धर्म का ज्ञाता बने और मन को भी अपने अधीन रखे। जो ब्राह्मण हर्ष, मद और क्रोध से रहित है, उसे कभी दु:ख नहीं उठाना पड़ता है। दान, वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, लज्जा, सरलता और इन्द्रियसंयम इन सद्गुणों से ब्राह्मण अपने तेज की वृद्धि और पाप का नाश करता है। इस प्रकार पाप धुल जाने पर बुद्धिमान ब्राह्मण स्वल्पाहार करते हुए इन्द्रियों को जीते और काम तथा क्रोध को अधीन करके ब्रह्मापद को प्राप्त करने की इच्छा करे। अग्नि, ब्राह्मण और देवताओं को प्रणाम एवं उनका पूजन करे। कड़वी बात मॅुह से न निकाले और हिंसा न करे; क्योंकि वह अधर्म से युक्त है। यह ब्राह्मण के लिये परम्परागत वृत्ति (कर्तव्य) का विधान किया गया है। कर्मो के तत्त्व को जानकर उनका अनुष्ठान करने से अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। संसार का जीवन एक भयंकर नदी के समान है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ इस नदी का जल हैं। लोभ किनारा है। क्रोध इसके भीतर कीचड़ है। इसे पार करना अत्यन्त कठिन है और इसके वेग को दबाना अत्यन्त असम्भव है, तथापि बुद्धिमान पुरुष इसे पार कर जाता है। प्राणियों को अत्यन्तमोह में डालने वाला काल सदा आक्रमण करने के लिये उद्यत है, इस बात की ओर सदा ही दृष्टि रखे। जो महान हैं, जो विधाता की ही दृष्टि में आ सकता हैं तथा जिस का बल कहीं प्रतहित नहीं होता, उस स्वभावरूप धारा-प्रवाह में यह सारा जगत् निरन्तर बहता जा रहा है। कालरूपी महान् नद बह रहा है। इसमें वर्षरूपी भॅवरे सदा उठ रही हैं। महीने इसकी उत्ताल तरंगें हैं। ऋतु वेग हैं। पक्ष लता और तृण हैं। निमेष और उन्मेष फेन है। दिन और रात जल प्रवाह है। कामदेव भयंकर ग्राह है। वेद और यज्ञ नौका हैं। धर्म प्राणियों का आश्रयभूत द्वीप है। अर्थ और काम जल हैं। सत्यभाषण और मोक्ष दोनों किनारे हैं। हिंसारूपी वृक्ष उस कालरूपी प्रवाह में बह रहे हैं। युग हृद है तथा ब्रह्मा ही उस कालनद को उत्पन्न करने वाला पर्वत है। उसी प्रवाह में पड़कर विधाता के रचे हुए समस्त प्राणी यमलोक की ओर खींचे चले जा रहे है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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