त्रिषष्टयधिकद्विशततम (263) अध्याय: वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व )
महाभारत: वन पर्व: त्रिषष्टयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर एक दिन महर्षि दुर्वासा इस बात का पता लगाकर कि पाण्डव लोग भोजन करके सुखपूर्वक बैठे हैं और द्रौपदी भी भोजन से निवृत्त हो आराम कर रही है, दस हजार शिष्यों से घिरे हुए उस वन में आये। श्रीमान राजा युधिष्ठिर अतिथियों को आते देख भाइयों सहित उनके सम्मुख गये। वे अपनी मर्यादा से कभी च्युत नहीं होते थे। उन्होंने उन अतिथि देवता को लाकर श्रेष्ठ आसन पर आदरपूर्वक बैठाया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर विधिपूर्वक पूजा करके उन्हें अतिथि सत्कार के रूप में निमन्त्रित किया और कहा- ‘भगवन! अपना नित्य नियम पूरा करके (भोजन के लिये) शीघ्र पधारिये।' यह सुनकर वे निष्पाप मुनि अपने शिष्यों के साथ स्नान करने के लिये चले गये। उन्होंने इस बात का तनिक भी विचार नहीं किया कि ये इस समय मुझे शिष्यों सहित भोजन कैसे दे सकेंगे। सारी मुनि मण्डली ने जल में गोता लगाया फिर सब लोग एकाग्रचित्त होकर ध्यान करने लगे। राजन्! इसी समय युवतियों में श्रेष्ठ पतिव्रता द्रौपदी को अन्न के लिये बड़ी चिन्ता हुई। जब बहुत सोचने विचारने पर भी उसे अन्न मिलने का कोई उपाय नहीं सूझा, तब वह मन-ही-मन कंसनिकन्दन आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का स्मरण करने लगी- ‘हे कृष्ण! हे महाबाहु श्रीकृष्ण! हे देवकीनन्दन! हे अविनाशी वासुदेव! चरणों में पड़े हुए दु:खियों का दु:ख दूर करने वाले हे जगदीश्वर! तुम्हीं सम्पूर्ण जगत के आत्मा हो। अविनाशी प्रभो! तुम्हीं इस विश्व की उत्पत्ति और संहार करने वाले हो। शरणागतों की रक्षा करने वाले गोपाल! तुम्हीं समस्त प्रजा का पालन करने वाले परात्पर परमेश्वर हो। आकूति (मन) और चित्ति (बुद्धि) के प्रेरक परमात्मन्! मैं तुम्हें प्रणाम करती हूँ। सबके वरण करने योग्य वरदाता अनन्त! आओ! जिन्हें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई सहायता देने वाला नहीं है, उन असहाय भक्तों की सहायता करो। पुराणपुरुष! प्राण और मन की वृत्ति आदि तुम्हारे पास तक नहीं पहुँच सकती। सबके साक्षी परमात्मन्! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ। शरणागतवत्सल देव! कृपा करके मुझे बचाओ। नीलकमलदल के समान श्यामसुन्दर! कमलपुष्प के भीतरी भाग के समान किंचित् लाल नेत्रों वाले पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण! तुम्हारे व:क्षस्थल पर कौस्तुभ मणमय आभूषण शोभा पाता है। प्रभो! तुम्ही समस्त प्राणियों के आदि और अन्त हो। तुम्हीं सबके परम आश्रय हो। तुम्हीं परात्पर, ज्योतिर्मय सर्वात्मा एवं सब ओर मुख वाले परमेश्वर हो। ज्ञानी पुरुष तुम्हें ही इस जगत् का परम बीज और सम्पूर्ण सम्पदाओं की निधि बतलाते हैं। देवेश्वर! यदि तुम मेरे रक्षक हो, तो मुझ पर सारी विपत्तियां टूट पड़ें, तो भी मुझे उनसे भय नही है। भगवन्! पहले कौरव-सभा में दु:शासन के हाथ से जैसे तुमने मुझे बचाया था, उसी प्रकार इस वर्तमान संकट से भी मेरा उद्धार करो’। वैशम्पायन जी कहते हैं- द्रौपदी के इस प्रकार स्तुति करने पर अचिन्त्यगति परमेश्वर देवाधिदेव जगन्नाथ भक्तवत्सल भगवान् केशव को यह मालूम हो गया कि द्रौपदी पर कोई संकट आ गया है, फिर तो शय्या पर अपने पास ही सोयी हुई रुक्मणी को छोड़कर तुरंत आ पहुँचे। भगवान् को आया देख द्रौपदी को बड़ा आनन्द हुआ। उसने उन्हें प्रणाम करके दुर्वासा मुनि के आने का सारा समाचार कह सुनाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज