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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने, कुलीन और सत्पुरुषों का संग्रह करने, कोष बढ़ाने तथा सबकी देखभाल करने के लिये राजा को प्रेरणा
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार जो राजा गुणवान् भृत्यों को अपने-अपने स्थान पर रखते हुए कार्यों में लगाता है, वह राज्य के यथार्थ फल का भागी होता है। पहले कहे हुए इतिहास से यह सिद्ध होता है कि कुत्ता अपने स्थान को छोड़कर ऊँचा चढ़ जाय तो न वह विश्वास के योग्य रह जाता है और न कभी उसका सत्कार ही होता है। कुत्ते को उसकी जगह से उठाकर ऊँचा कदापि न बिठावे; क्योकि वह दूसरे किसी उंचे स्थान पर चढ़कर प्रमाद करने लगता है (इसी प्रकार किसी हीन कुल के मनुष्य को उसकी योग्यता और मर्यादा से उंचा स्थान मिल जाय तो वह अहंकारवश उच्छृंखल हो जाता है।) जो अपनी जाति के गुण से सम्पन्न हो अपने वर्णोचित कर्मों में ही लगे रहते हों, उन्हें मन्त्री बनाना चाहिये; किंतु किसी को भी उसकी योग्यता से बाहर के कार्य में नियुक्त करना उचित नहीं है।
जो राजा अपने सेवकों को उनकी योग्यता के अनुरुप कार्य सौपता है, वह भृत्य के गुणों से सम्पन्न हो उत्तम फल का भागी होता है। शरभ को शरभ की जगह, बलवान् सिंह को सिंह के स्थान में, बाघ को बाघ की जगह तथा चीते को चीते के स्थान पर नियुक्त करना चाहिये (तात्पर्य यह कि चारों वर्णों के लोगों को उनकी मर्यादा के अनुसार कार्य देना उचित है। सब सेवकों को उनके योग्य कार्य में ही लगाना चाहिये। कर्मफल की इच्छा करने वाले राजा को चाहिये कि वह अपने सेवकों को ऐसे कार्यों में न नियुक्त करे, जो उनकी योग्यता और मर्यादा के प्रतिकुल पड़ते हों।
जो बुद्धिहीन नरेश मर्यादा का उल्लघंन करके अपने भृत्यों को प्रतिकुल कार्यों में लगाता है, वह प्रजा को प्रसन्न नहीं रख सकता। उत्तम गुणों की इच्छा रखने वाले नरेश को चाहिये कि वह उन सभी मनुष्यों को काम में न लगावें, जो मूर्ख, नीच, बुद्धिहीन, अजितेन्द्रिय और निन्दित कुल में उत्पन्न हुए हों। साधु, कुलीन, शूरवीर, ज्ञानवान्, अदोषदर्शी, चतुर, स्वाभाविक शुभ गुणों से सम्पन्न तथा अपने-अपने पद पर निन्दा से रहित हों, वे ही राजाओं के बाह्य सेवक होने योग्य हैं। सिंह के पास सदा सिंह ही सेवक रहे। यदि सिंह के साथ सिंह से भिन्न प्राणी रहने लगता है तो वह सिंह के तुल्य ही फल भोगने लगता है। किंतु जो सिंह कुत्तों से घिरा रहकर सिंहोचित कर्म एवं फल में अनुरक्त रहता है, वह कुत्तों से उपासित होने के कारण सिंहोचित कर्मफल का उपभोग नहीं कर सकता। नरेन्द्र! इसी प्रकार शूरवीर, विद्वान, बहुश्रुत और कुलीन पुरुषों के साथ रहकर ही सारी पृथ्वी पर विजय पायी जा सकती है।
भृत्यवानों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! भूपालों को चाहिये कि अपने पास ऐसे किसी भृत्य का संग्रह न करें, जो विद्याहीन, सरलता से रहित, मूर्ख और दरिद्र हो। जो मनुष्य स्वामी के कार्य में तत्पर रहने वाले हैं, वे धनुष से छूटे हुए बाण के समान लक्ष्यसिद्धि के लिये आगे बढ़ते हैं। जो सेवक राजा के हित-साधन में संलग्न रहते हों, राजा मधुर वचन बोलकर उन्हें प्रोत्साहन देता रहे।राजाओं को पूरा प्रयत्न करके निरन्तर अपने कोष की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि कोष ही उनकी जड़ हैं, कोष ही उन्हें आगे बढ़ानेवाला होता है।
युधिष्ठिर! तुम्हारा अन्न-भण्डार सदा पुष्टिकारक अनाजों से भरा रहना चाहिये और उसकी रक्षा का भार श्रेष्ठ पुरुषों को सौंप देना चाहिये। तुम सदा धन-धान्य की वृद्धि करने वाले बनो। तुम्हारे सभी सेवक सदा उद्योगशील तथा युद्ध की कला में कुशल हों। घोड़ों की सवारी करने तथा उन्हें हांकने में भी उनको विशेष चातुर होना चाहिये। कौरवनन्दन! तुम जाति भाइयों पर ख्याल रखो, मित्रों और सम्बन्धियों से घिरे रहो तथा पुरवासियों के कार्य और हित की सिद्धि का उपाय ढूंढ़ा करो। तात! यह मैंने तुम्हारे निकट प्रजापालन-विषयक स्थिर बुद्धि का प्रतिपादन किया है और कुत्ते का दृष्टान्त सामने रखा है, अब और क्या सुनना चाहते हो?
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में कुत्ता और ऋषि का संवादविषयक एक सौ उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ।
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