महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 80 श्लोक 1-17

अशीतितम (77) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


गौओं तथा गोदान की महिमा

वसिष्ठ जी कहते है- राजन! मनुष्य को चाहिए कि सदा सबेरे और सांयकाल आचमन करके इस प्रकार जप करे- 'घी और दूध देने वाली, घी की उत्पत्ति का स्थान, घी को प्रकट करने वाली, घी की नदी तथा घी की भवँररूप गौएँ मेरे घर में सदा निवास करें। गौ का घी मेरे हृदय में सदा स्थित रहे। घी मेरी नाभि में प्रतिष्ठित हो। घी मेंरे सम्पूर्ण अंगों में व्याप्त रहे और घी मेरे मन में स्थित हो। गौएँ मेरे आगे रहें। गौएँ मेरे पीछे रहें। गौएँ मेरे चारों और रहें और में गौओ के बीच में निवास करूँ। इस प्रकार प्रतिदिन तप करने वाला मनुष्य दिनभर में जो पाप करता है, उससे छुटकारा पा जाता है।

सहस्र गौओं का दान करने वाले मनुष्य जहाँ सोने के महल हैं, जहाँ स्वर्गगंगा बहती है तथा जहाँ गन्धर्व और अप्सराएँ निवास करती हैं, उस स्वर्ग लोक में जाते हैं। सहस्र गौओं का दान करने वाले पुरुष जहाँ दूध के जल से भरी हुई, दही के सेवार से व्याप्त हुई तथा मक्खनरूपी कीचड़ से युक्त हुई नदियाँ बहती हैं, वहीं जाते हैं। जो विधिपूर्वक एक लाख गौओं का दान करता है, वह अत्यन्त अभ्युदय को पाकर स्वर्गलोक में सम्मानित होेता है। वह मनुष्य अपने माता और पिता की दस-दस पीढ़ियों को पवित्र करके उन्हें पुण्यमय लोकों में भेजता है। जो गाय के बराबर तिल की गाय बनाकर उसका दान करता है अथवा जो जलधेनु का दान करता है, उसे यमलोक में जाकर वहाँ की कोइ यातना नहीं भोगनी पड़ती है।

गौ सबसे अधिक पवित्र, जगत का आधार और देवताओं की माता है। उसकी महिमा अप्रमेय है। उसका सादर स्पर्श करें और उसे दाहिने रखकर चलें तथा उत्तम समय देखकर उसका सुपात्र ब्राह्मण को दान करें। जो बड़े-बड़े सींगों वाली कपिला धेनु को वस्त्र ओढ़ाकार उसे बछड़े और कांसी की दोहिनी सहित ब्राह्मण को दान करता है, वह मनुष्य यमराज की दुर्गम सभा में निर्भय होकर प्रवेश करता है। प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिये कि सुन्दर एवं अनेक प्रकार के रूप-रंग वाली विश्वरूपिणि गोमाताएँ सदा मेरे निकट आयें। गोदान से बढ़कर कोई पवित्र दान नहीं है। गोदान के फल से श्रेष्ठ दूसरा कोइ फल नहीं है तथा संसार में गौ से बढ़कर कोई उत्कृष्ट प्राणी नहीं है। त्वचा, रोम, सींग, पूँछ के बाल, दूध और मेदा आदि के साथ मिलकर गौ (दूध, दही, घी आदि के द्वारा) यज्ञ का निर्वाह करती है; अतः उससे श्रेष्ठ दूसरी कौन-सी वस्तु है।

जिसने समस्त चराचर जगत को व्याप्त कर रखा है, उस भूत और भविष्य की जननी गौ को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। नरश्रेष्ठ! यह मैंने तुमसे गौओं के गुणवर्णन सम्बन्धी साहित्य का एक लघुअंश मात्र बताया है, दिग्दर्शन मात्र कराया है। गौओं के दान से बढ़कर इस संसार में दूसरा कोई दान नहीं है तथा उनके समान दूसरा कोई आश्रय भी नहीं है।

भीष्म जी कहते हैं- महर्षि वसिष्ठ के ये वचन सुनकर भूमिदान करने वाले संयतात्मा महात्मना राजा सौदास ने 'यह बहुत उत्तम पुण्य कार्य है' ऐसा सोचकर ब्राह्मणों को बहुत-सी गौएँ दान दीं। इससे उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति हुई।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में गोदान विषयक अस्सीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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