महाभारत आदि पर्व अध्याय 209 श्लोक 1-19

नवाधिकद्विशततम (209) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

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महाभारत: आदि पर्व: नवाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


सुन्‍द और उपसुन्‍द द्वारा क्रूरतापूर्ण कर्मों से त्रिलोकी पर विजय प्राप्‍त करना

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! उत्‍सव समाप्‍त हो जाने पर तीनों लोकों को अपने अधिकार में करने की इच्‍छा से आपस में सलाह करके उन दोनों दैत्‍यों ने सेना को कूच करने की आज्ञा दी। सुहृदयों तथा दैत्‍यजा‍तीय बूढ़े मन्त्रियों की अनुमति लेकर उन्‍होंने रात के समय मघा नक्षत्र में प्रस्‍थान करके यात्रा प्रारम्‍भ की। उनके साथ गदा, पट्टिश, शूल, मुद्गर और कवच से सुसज्जित दैत्‍यों की विशाल सेना जा रही थी। वे दोनों सेना के साथ प्रस्‍थान कर रहे थे। चारण लोग विजयसूचक मंगल और स्‍तुती पाठ करते हुए उन दोनों के गुण गाते जाते थे। इस प्रकार उन दोनों दैत्‍यों ने बड़े आनन्‍द से यात्रा की। युद्ध के लिये उन्‍मत्‍त रहने वाले वे दोनों दैत्‍य इच्‍छानुसार सर्वत्र जाने की शक्ति‍ रखते थे; अत: आकाश में उछलकर पहले देवताओं के ही घरों पर जा चढ़े। उनका आगमन सुनकर और ब्रह्मा जी से मिले हुए उनके वरदान का विचार करके देवता लोग स्‍वर्ग छोड़कर ब्रह्मलोक में चले गये।

इस प्रकार इन्‍द्र लोक पर विजय पाकर वे तीव्र पराक्रमी दैत्‍य यक्षों, राक्षसों तथा अन्‍यान्‍य आकाशचारी भूतों को मारने और पीड़ा देने लगे। उन दोनों महारथियों ने भूमि के अन्‍दर पाताल में रहने वाले नागों को जीतकर समुद्र के तट पर निवास करने वाली सम्‍पूर्ण म्‍लेच्‍छ जातियों को परास्‍त किया। तदनन्‍तर भयंकर शासन करने वाले वे दोनों दैत्‍य सारी पृथ्‍वी को जीतने के लिये उद्यत हो गये और अपने सैनिकों को बुलाकर अत्‍यन्‍त तीखे वचन बोले- ‘इस पृथ्‍वी पर बहुत से राजर्षि और ब्राह्मण रहते हैं, जो बड़े-बड़े यज्ञ करके हव्‍य-कव्‍यों द्वारा देवताओं के तेज, बल और लक्ष्‍मी की वृद्धि किया करते हैं। इस प्रकार यज्ञादि कर्मों में लगे हुए वे सभी लोग असुरों के द्रोही है। इसलिये हम सबको संगठित होकर उन सबका सब प्रकार से वध कर डालना चाहिये’।

समुद्र के पूर्व तट पर अपने समस्‍त सैनिकों को ऐसा आदेश देकर मन में क्रूर संकल्‍प लिये वे दोनों भाई सब ओर आक्रमण करने लगे। जो लोग यज्ञ करते तथा जो ब्राह्मण आचार्य बनकर यज्ञ कराते थे, उन सबका बलपूर्वक वध करके वे महाबली दैत्‍य आगे बढ़ जाते थे। उनके सैनिक शुद्धात्‍मा मुनियों के आश्रमों पर जाकर उनके अग्निहोत्र की सामग्री उठाकर बिना किसी डर-भय के पानी में फेंक देते थे। कुछ तपस्‍या के धनी महात्‍माओं ने क्रोध में भरकर उन्‍हें जो शाप दिये, उनके शाप भी उन दैत्‍यों के मिले हुए वरदान से प्रतिहत होकर उनका कुछ बिगाड़ नहीं सके। पत्‍थर पर चलाये हुए बाणों की भाँति जब शाप उन्‍हें पीड़ित न कर सके, तब ब्राह्मण लोग अपने सारे नियम छोड़कर वहाँ से भाग चले। जैसे सांप गरुड़ के डर से भाग जाते हैं, उसी प्रकार भूमण्‍डल के जितेन्द्रिय, शान्ति परायण एवं तप:सिद्ध महात्‍मा भी उन दोनों दैत्‍यों के भय से भाग जाते थे। सारे आश्रम मथकर उजाड़ डाले गये। कलश और स्रुव तोड़-फोड़कर फेंक दिये गये। उस समय सारा जगत् काल के द्वारा विनष्‍ट हुए की भाँति सूना हो गया। राजन्! तदनन्‍तर जब गुफाओं में छिपे हुए ऋषि दिखायी न दिये, तब उन दोनों ने एक राय करके उनके वध की इच्‍छा से अपने स्‍वरुप को अनेक जीव-जन्‍तुओं के रुप में बदल लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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