महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 126 श्लोक 1-19

षडविशत्‍यधिकशततम(126) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षडविशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा सुमित्र का मृग की खोज करते हुए तपस्‍वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना और उनसे आशा के विषय में प्रश्‍न करना

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! उस महान वन में प्रवेश करके राजा सुमित्र तापसों के आश्रम पर जा पहुँचे और वहाँ थककर बैठ गये। वे परिश्रम से पीड़ित और भूख से व्‍याकुल हो रहे थे। उस अवस्‍था में धनुष धारण किये राजा सुमित्र को देखकर बहुत-से ऋषि उनके पास आये और सबने मिलकर उनका विधिपूर्वक स्‍वागत-सत्कार किया।

ऋषियों द्वारा किये गये उस स्‍वगात-सत्‍कार को ग्रहण करके राजा ने भी उन सब तापसों से उनकी तपस्या की भली-भाँति बृद्धि होने का समाचार पूछा। उन तपस्‍या के धनी महर्षियों ने राजा के वचनों को सादर ग्रहण करके उन नृपश्रेष्ठ से वहाँ आने का प्रयोजन पूछा। ‘कल्‍याण स्‍वरुप नरेश्‍वर! किस सुख के लिये आप इस तपोवन में तलवार बाँधे धनुष और बाण लिये पैदल ही चले गये। ‘मानद! हम यह सब सुनना चाहता हैं, आप कहाँ से पधारे हैं? किस कुल में आपका जन्‍म हुआ है? तथा आपका नाम क्‍या है? ये सारी बातें हमें बताइये’। पुरुषप्रवर भरतनन्‍दन! तदनन्‍तर राजा सुमित्र ने उन समस्‍त ब्राह्मणों से यथोचित बात कही और अपना कार्यक्रम बताया- ‘तपोधन! मेरा जन्‍म हैहय-कुल में हुआ है। मैं मित्रों का आनन्‍द बढ़ाने वाला राजा सुमित्र हूँ और सहस्रों बाणों के आघात से मृग-समूहों का विनाश करता हुआ विचर रहा हूँ। ‘मेरे साथ बहुत बड़ी सेना थी। उसके द्वारा सुरक्षित हो मैं मन्‍त्री और अन्‍त:पुर के साथ आया था, परंतु मेरे बाणों से घायल हुआ एक मृग बाण‍सहित इधर ही भाग निकला। ‘उस भागते हुए मृग के पीछे मैं अकस्‍मात इस वन में आप लोगों के समीप आ पहुँचा हूँ। मेरी सारी शोभा नष्ट हो गयी है। मैं हताश होकर भारी परिश्रम से कष्ट पा रहा हूँ। ‘मैंने परिश्रम के कारण जो इतना कष्ट पाया है और अपने राजचिह्नों से भ्रष्ट होकर एक हताश की भाँति आपके आश्रम में पैर रखा है, इससे बढ़कर दु:ख और क्‍या हो सकताहै?

‘महान पर्वत हिमालय अथवा अगाध जलराशि समुन्‍द्र अपनी विशालता के द्वारा आशा की समानता नहीं कर सकते। तपस्‍या में श्रेष्ठ तपोधनों! जैसे आकाश का कहीं अन्‍त नहीं है, उसी प्रकार मैं आशा का अन्‍त नहीं पा सका हूँ। आपको तो सब कुछ मालूम ही है; क्‍योंकि तपोधन मुनि सर्वज्ञ होते हैं। ‘आप महान सौभाग्‍यशाली तपस्‍वी है; इसलिये मैं आपसे अपने मन का संदेह पूछता हूँ। एक ओर आशावान पुरुष हो और दूसरी ओर अनन्‍त आकाश हो तो जगत में महत्ता की द्रष्टि से आप लोगों को कौन बड़ा जान पड़ता है? मैं इस बात को तत्त्व से सुनना चाहता हूँ। भला, यहाँ आकर कौन-सी वस्‍तु दुर्लभ रहेगी? ‘यदि आपके लिये सदा यह कोई गोपनीय रहस्‍य न हो तो शीघ्र इसका वर्णन कीजिये। व्रिपवरों! मैं आप लोगों से ऐसी कोई बात नहीं सुनना चाहता, जो गोपनीय रहस्‍य हो। ‘यदि मेरे इस प्रश्‍न से आप लोगों की तपस्‍या में विघ्‍न पड़ रहा हो तो मैं इससे विराम लेता हूँ और यदि आपके पास बातचीत का समय हो तो जो प्रश्‍न मैंने उपस्थित किया हैं, इसका आप समाधान करें। मैं इस आशा के कारण और सामर्थ्‍य के विषय में ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ। आप लोग भी सदा तप में संलग्‍न रहने वाले हैं; अत: एकत्र होकर इस प्रश्‍न का विवेचन करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में ॠषभगीताविषयक एक सौ छब्‍बीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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