महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-20

द्विषष्टितम (62) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

राजा मान्‍धाता की महत्‍ता

  • नारद जी कहते हैं– सृंजय! युवनाश्व के पुत्र राजा मान्‍धाता भी मरे थे, यह सुना गया है। वे देवता, असुर और मनुष्‍य– तीनों लोकों में विजयी थे। (1)
  • पूर्वकाल में दोनों अश्विनीकुमार नामक देवताओं ने उन्‍हें पिता के पेट से निकाला था। एक समय की बात है, राजा युवनाश्‍च वन में शिकार खेलने के लिये विचर रहे थे। वहाँ उनका घोड़ा थक गया और उन्‍हें भी प्‍यास लग गयी। (2)
  • इतने में दूर उठता हुआ धूआँ देखकर वे उसी ओर चले और एक यज्ञमण्‍डप में जा पहुँचे। वहाँ एक पात्र में रखे हुए घृतमिश्रित अभिमंत्रित जल को उन्‍होंने पी लिया। उस जल को युवनाश्‍च के पेट में पुत्ररूप में परिणत हुआ देख वैद्यों में श्रेष्‍ठ अश्विनीकुमार नामक देवताओं ने उसे पिता के गर्भ से बाहर निकाला। (3)
  • देवता के समान तेजस्‍वी उस शिशु को पिता की गोद में शयन करते देख देवता आपस में कहने लगे, यह किसका दूध पीयेगा? यह सुनकर इन्‍द्र ने कहा– यह पहले मेरा ही दूध पीये। (4-5)
  • तदनन्‍तर इन्‍द्र की अंगुलियों से अमृतमय दूध प्रकट हो गया, क्‍योंकि इन्‍द्र ने करुणावश ‘मां धास्‍यति’[1] ऐसा कहकर उस पर कृपा की थी, इसलिये उसका ‘मान्‍धाता’ यह अद्भुत नाम निश्चित कर दिया गया। (6)
  • तत्‍पश्चात महामना मान्‍धाता के मुख में इन्‍द्र के हाथ ने दूध और घी की धारा बहायी। वह बालक इन्‍द्र का हाथ पीने लगा और एक ही दिन में बहुत बड़ गया। (7-8)
  • वह पराक्रमी राजकुमार बारह दिनों में ही बारह वर्षों की अवस्‍था वाले बालक के समान हो गया[2] मान्‍धाता ने एक ही दिन में इस सारी पृथ्‍वी को जीत लिया। (9)
  • वे धर्मात्‍मा, धैर्यवान, शूरवीर, सत्‍यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। मानव मान्धाता ने जनमेजय, सुधन्वा, गय, पुरु, बृहद्रथ, असित और नृग को भी जीत लिया। (10)
  • सूर्य जहाँ से उदय होते थे और जहाँ जाकर अस्‍त होते थे, वह सारा का सारा प्रदेश युवनाश्‍चपुत्र मान्‍धाता का क्षेत्र[3] कहलाता था। (11)
  • राजन! उन्‍होंने सौ अश्‍वमेध और सौ राजसूय यज्ञों का अनुष्‍ठान करके सौ योजन विस्‍तृत रोहितक, मत्‍स्‍य तथा हिरण्‍यमय[4] जनपदों को, जो लोगों में ऊँची भूमि के रूप में प्रसिद्ध थे, ब्राह्मणों को दे दिया। (12-13)
  • अनेक प्रकार के सुस्‍वादु भक्ष्‍य–भोज्‍य पदार्थों के पर्वत भी उन्‍होंने ब्राह्मणों को दे दिये। ब्राह्मणों के भोजन से भी जो अन्न बच गया, उसे दूसरे लोगों को दिया गया। उस अन्‍न को खाने वाले लोगों की ही वहाँ कमी रहती थी। अन्‍न कभी नहीं घटता था। (14)
  • वहाँ भक्ष्‍य–भोज्‍य अन्‍न और पीने योग्‍य पदार्थों की अनेक राशियाँ संचित थीं। अन्‍न के तो पहाड़ों जैसे ढेर सुशोभित होते थे। उन पर्वतों को मधु और दूध की सुन्‍दर नदियाँ घेरे हुए थीं। पर्वतों के चारों ओर घी के कुण्‍ड और दाल के कुएँ भरे थे। वहाँ कई नदियों में फेन की जगह दही और जल के स्‍थान में गुड़ के रस बहते थे। (15)
  • वहाँ देवता, असुर, मनुष्‍य, यक्ष, गन्धर्व, नाग, पक्षी तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण एवं ऋषि भी पधारे थे, किंतु वहाँ कोई मनुष्‍य ऐसे नहीं थे, जो विद्वान्न न हों। (16-17)
  • उस समय राजा मान्‍धाता सब ओर से धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न समुद्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी को ब्राह्मणों के अधीन करके सूर्य के समान अस्‍त हो गये। (18)
  • उन्‍होंने अपने सुयश से सम्‍पूर्ण दिशाओं को व्‍याप्‍त करके पुण्‍यात्‍माओं के लोकों में पदार्पण किया। श्‍वैत्‍य सृंजय! वे पूर्वोक्‍त चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्‍या बात है। अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। (19-20)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक बासठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मेरा दूध पीयेगा
  2. राजा होने पर
  3. राज्‍य
  4. सोने की खानों से युक्‍त

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