महाभारत आदि पर्व अध्याय 126 श्लोक 1-20

षडविंशत्‍यधिकशततम (126) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: षडविंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्‍कार तथा भाई-बन्‍धुओं द्वारा उनके लिये जलाञ्जलिदान

धृतराष्ट्र बोले- विदुर! राजाओं में श्रेष्ठ पाण्‍डु के तथा विशेषत: माद्री के भी समस्‍त प्रेतकार्य राजोचित्त ढंग से कराओ।। पाण्‍डु और माद्री के लिये नाना प्रकार के पशु, वस्त्र, रत्न और धन दान करो। इस अवसर पर जिनको जितना चाहिये, उतना धन दो। कुन्‍ती देवी माद्री का जिस प्रकार सत्‍कार करना चाहे, वैसी व्‍यवस्‍था करो। माद्री की अस्थियों को वस्त्रों से अच्‍छी प्रकार ढंक दो, जिससे उसे वायु तथा सूर्य भी न देख सकें। निष्‍पाप राजा पाण्‍डु शोचनीय नहीं, प्रशंसनीय हैं, जिन्‍हें देव कुमारों के समान पांच वीर पुत्र प्राप्त हुए हैं। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! विदुर ने धृतराष्ट्र से तथास्‍तु कहकर भीष्‍म जी के साथ परम पवित्र स्‍थान में पाण्‍डु का अन्तिम संस्‍कार कराया। राजन्! तदनन्‍तर शीघ्र ही पाण्‍डु का दाह-संस्‍कार करने के लिये पुरोहितगण घृत और सुगन्‍ध आदि के साथ प्रज्‍वलित अग्नि लिये नगर से बाहर निकले। इसके बाद वसन्‍त-ॠतु में सुलभ नाना प्रकार के सुन्‍दर पुष्‍पों तथा श्रेष्ठ गन्‍धों से एक शिबिका (वैकुण्‍ठी) को सजाकर उसे सब ओर से वस्त्र द्वारा ढंक दिया। उसमें माद्री के साथ पाण्‍डु की अस्थियां भली-भाँति बांध कर रखी गयी थीं। मनुष्‍यों द्वारा ढोई जाने वाली और अच्‍छी तरह सजायी हुइ उस शिबिका के द्वारा सभी बन्‍धु-बान्‍धव माद्री सहित नरश्रेष्ठ पाण्‍डु की अस्थियों को ढोने लगे।

शिबिका के ऊपर श्‍वेत छत्र तना हुआ था। चंवर डुलाये जा रहे थे। सब प्रकार के बाजो-गाजों से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। सैंकड़ों मनुष्‍यों ने उन महाराज पाण्‍डु के दाह-संस्‍कार के दिन बहुत-से रत्न लेकर याचकों को दिये। इसके बाद कुरुराज पाण्‍डु के लिये अनेक श्‍वेत छत्र, बहुतेरे बड़े-बड़े चंवर तथा कितने ही सुन्‍दर-सुन्‍दर वस्त्र लोग वहाँ ले आये। पुरोहित लोग सफेद वस्त्र धारण करके अग्निहोत्र की अग्नि में आहुति डालते जाते थे। वे अग्नियां माला आदि से अलंकृत एवं प्रज्‍वलित हो पाण्‍डु की पालकी के आगे चल रही थीं। सहस्रों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र शोक से संतप्त हो रोते हुए महाराज पाण्‍डु की शिबिका के पीछे जा रहे थे। वे कहते जाते थे- हाय! ये महाराज हम लोगों को छोड़कर, हमें सदा के लिये भारी दु:ख में डालकर और हम सबको अनाथ करके कहाँ जा रहे हैं। समस्‍त पाण्‍डव, भीष्‍म तथा विदुर जी क्रन्‍दन करते हुए जा रहे थे। वन के रमणीय प्रदेश में गंगा जी के शुभ एवं समतल तट पर उन लोगों ने, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले सत्‍यवादी नरश्रेष्ठ पाण्‍डु और उनकी पत्नी माद्री की शिबिका को रखा। तदनन्‍तर राजा पाण्‍डु की अस्थियों को सब प्रकार की सुगन्‍धों से सुवासित करके उन पर पवित्र काले अगर का लेप किया गया। फि‍र उन्‍हें दिव्‍य चन्‍दन से चर्चित करके सोने के कलशों द्वारा लाये हुए गंगा जल से भाई-बन्‍धुओं ने उसका अभिषेक किया। तत्‍पश्चात उन पर सब ओर से काले अगर से मिश्रित तुगंरस नामक गन्‍ध–द्रव्‍य का एवं श्‍वेत चन्‍दन का लेप किया गया। इसके बाद उन्‍हें सफेद स्‍वदेशी वस्त्रों से ढक दिया गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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