महाभारत आदि पर्व अध्याय 171 श्लोक 1-19

एकससत्‍यधिकशततम (171) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: एकससत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


तपती और संवरण की बातचीत

गन्धर्व कहता है- अर्जुन! तब तपती अद्दश्‍य हो गयी, तब काममोहित राजा संवरण, जो शत्रुसमुदाय को मार गिराने-वाले थे, स्‍वयं ही बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। जब वे इस प्रकार मूर्च्छित होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े, तब स्‍थूल एवं विशाल श्रोणीप्रदेश वाली तपती ने मन्‍द-मन्‍द मुस्कराते हुए अपने राजा संवरण के सामने प्रकट कर दिया। कुरुवंश का विस्‍तार करने वाले राजा संवरण कामाग्नि से पीड़ित हो अचेत हो गये थे। उस समय जैसे कोई हंसकर मधुर वचन बोलता हो, उसी प्रकार कल्‍याणी तपती मीठी वाणी में उन नरेश से बोली- ‘शत्रुदमन! उठिये, उठिये, उठिये; आपका कल्‍याण हो। राजसिंह! आप इस भूतल के विख्‍यात सम्राट हैं। आपको इस प्रकार मोह के वशीभूत नहीं होना चाहिये।' तपती ने जब मधुर वाणी में इस प्रकार कहा, तब राजा संवरण ने आंखें खोलकर देखा। वही विशाल नितम्‍बों वाली सुन्‍दरी सामने खड़ी थी। राजा के अन्‍त:करण में कामजनित आग जल रही थी। वे उस कजरारे नेत्रों वाली सुन्‍दरी से लड़खड़ाती वाणी में बोले- ‘श्‍यामलोचने! तुम आ गयीं, अच्‍छा हुआ। यौवन के मद से सुशोभि‍त होने वाली सुन्‍दरी! मैं काम से पीड़ित तुम्‍हारा सेवक हूँ। तुम मुझे स्‍वीकार करो, अन्‍यथा मेरे प्राण मुझे छोड़कर चले जायंगे।

विशालाक्षि! कमल के भीतरी भाग की-सी कान्ति वाली सुन्‍दरि! तुम्‍हारे लिये कामदेव मुझे अपने तीखे बाणों द्वारा बार-बार घायल कर रहा है। यह (एक क्षण के लिये भी) शान्‍त नहीं होता। भद्रे! ऐसे समय में जब मेरा कोई भी रक्षक नहीं है, मुझे कामरुपी महासर्प ने डस लिया है। स्‍थूल एवं विशाल नितम्‍बों वाली वरानने! मेरे समीप आओ। किन्‍नरों की-सी मीठी बोली बोलने वाली! मेरे प्राण तुम्‍हारे ही अधीन हैं। भीरु! तुम्‍हारे सभी अंग मनोहर तथा अनिन्‍द्य सौन्‍दर्य से सुशोभि‍त हैं। तुम्‍हारा मुखकमल और चन्‍द्रमा के समान सुशोभि‍त होता है। मैं तुम्‍हारे बिना जीवित नहीं रह सकूंगा। कमलदल के समान सुन्‍दर नेत्रों वाली सुन्‍दरि! यह कामदेव मुझे (अपने बाणों से) घायल कर रहा हैं। विशाललोचने! इसलिये तुम मुझ पर दया करो। कजरारे नेत्रों वाली भामिनी! मैं तुम्‍हारा भक्‍त हूँ। तुम मेरा परित्‍याग न करो। तुम्‍हें तो प्रेमपूर्वक मेरी रक्षा करनी चाहिये। मेरा मन तुम्‍हारे दर्शन के साथ ही तुमसे अनुरक्‍त हो गया है। इसलिये वह अत्‍यन्‍त चञ्चल हो उठा है।

कल्‍याणि! तुम्‍हें देख लेने के बाद फिर दूसरी स्‍त्री की ओर देखने की रुचि मुझे नहीं रह गयी है। मैं सर्वथा तुम्‍हारे अधीन हूं, मुझ पर प्रसन्‍न हो जाओ। महानुभावे! मुझ भक्‍त को अंगीकार करो। वरारोहे! विशाल नेत्रों वाली अंगने! जब से मैंने तुम्‍हें देखा हैं, तभी से कामदेव मेरे अन्‍त:करण को अपने बाणों द्वारा घायल कर रहा है। कमललोचने! तुम प्रेमपूर्वक समागम के जल से मेरे कामाग्निजनित दाह को बुझाकर मुझे आह्लाद प्रदान करो। कल्‍याणि! तुम्‍हारे दर्शन से उत्‍पन्‍न हुआ कामदेव फूलों के आयुध लेकर भी अत्‍यन्‍त दुर्धर्ष हो रहा है। उसके धनुष और बाण दोनों ही बड़े प्रचण्‍ड हैं। वह अपने दुस्‍सह बाणों से मुझे बींध रहा है। महानुभावे! तुम आत्‍मदान देकर मेरे उस काम को शान्‍त करो। वरागने! गान्‍धर्व विवाह द्वारा तुम मुझे प्राप्‍त होओ। सब विवाहों में गान्‍धर्व विवाह ही श्रेष्ठ बतलाया जाता है।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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