महाभारत आदि पर्व अध्याय 170 श्लोक 37-44

सप्‍तत्‍यधिकशततम (170) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 37-44 का हिन्दी अनुवाद


तुम्‍हारे सभी अंग परमसुन्‍दर एवं निर्दोष हैं। तुम सब प्रकार के (दिव्‍य) आभूषणों से विभूषि‍त हो। सुन्‍दरि! इन आभूषणों से तुम्‍हारी शोभा नहीं है, अपितु तुम स्‍वयं ही इन आभूषणों की शोभा बढ़ाने वाली अभीष्‍ट आभूषण के समान हो। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम न तो देवागंना हो न असुरकन्‍या, न यक्षकुल की स्‍त्री हो न राक्षसवंश की, न नागकन्‍या हो न गन्‍धर्व कन्‍या। मैं तुम्‍हें मानवी भी नहीं मानता। यौवन के मद से सुशोभि‍त होने वाली सुन्‍दरी! मैंने अब-तक जो कोई भी सुन्‍दरी स्त्रियाँ देखी अथवा सुनी हैं, उनमें से किसी को भी मैं तुम्‍हारे समान नहीं मानता। सुमुखि! जब से मैंने चन्‍द्रमा से भी बढ़कर कमनीय एवं कमल दल के समान विशाल नेत्रों से युक्‍त तुम्‍हारे मुख का दर्शन किया है, तभी से मन्‍मथ मुझे मथ-सा रहा है।'

इस प्रकार राजा संवरण उस सुन्‍दरी से बहुत कुछ कह गये; परंतु उसने उस समय उस निर्जन वन में उन कामपीड़ित नरेश को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। राजा संवरण उन्‍मत्‍त की भाँति प्रलाप करते रह गये और वह विशाल नेत्रों वाली सुन्‍दरी वहीं उनके सामने ही बादलों में बिजली की भाँति अन्‍तर्धान हो गयी। तब वे नरेश कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाली उस (दिव्‍य) कन्‍या को ढूढने के लिये वन में सब ओर उन्‍मत्‍त की भाँति भ्रमण करने लगे। जब कहीं भी उसे देख न सके, जब वे नृपश्रेष्‍ठ वहाँ बहुत विलाप करते-करते मूर्च्छित हो दो घड़ी तक निश्चेष्ट पड़े रहे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत चैत्ररथ पर्व में तपती-उपाख्‍यानविषयक एक सौ सत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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