पंचाशीत्यधिकद्विशततम (285) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचाशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! शास्त्र में पुरुष के लिये जो यह अध्यात्मतत्त्व बताया गया है, वह अध्यात्म क्या है और उसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई है? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- तात! तुम मुझसे जिस अध्यायत्मतत्त्व को पूछ रहे हो, वह बुद्धि के द्वारा सभी विषयों का उत्तम ज्ञान प्रदान करने वाला है। मैं तुमसे उसकी व्याख्या करूँगा, तुम उस व्याख्या को ध्यान देकर सुनो। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज– ये पाँच महाभूत समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। भरतश्रेष्ठ! प्राणियों का शरीर उन्हीं पाँचों महाभूतों का कार्यसमूह है। वे कार्यरूप में परिणत भूतगण सदा लीन होते और प्रकट होते रहते हैं। जैसे महाभूत सूक्ष्म भूतों से प्रकट होते और उन्हीं में लय को प्राप्त होते हैं; तथा जैसे लहरें समुद्र से प्रकट होकर फिर उसी में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार परमात्मा से समस्त प्राणी उत्पन्न होते और पुन: उसी में लीन हो जाते हैं। जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगों को फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों के शरीर आकाश आदि पाँच महाभूतों से उत्पन्न होते और फिर उन्हीं में लीन हो जाते हैं। शरीर में जो शब्द होता है, वह आकाश का गुण है। यह स्थूल शरीर पृथ्वी का गुण या कार्य है। प्राण वायु का, रस जल का तथा रूप तेज का गुण बताया जाता है। इस प्रकार यह समस्त स्थावर-जगंम शरीर पंचभूतमय ही है। प्रलयकाल में यह परमात्मा में ही लीन होता है और सृष्टि के आरम्भ में पुन: उन्हीं से प्रकट हो जाता है। सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि करने वाले र्इश्वर ने समस्त प्राणियों में पंचमहाभूतों का ही विभागपूर्वक समावेश किया है। देह के भीतर जिस भूत के स्थित होने से मनुष्य जो कार्य देखता है, वह बताता हूँ; सुनो। शब्द, श्रोत्रेन्द्रिय और सम्पूर्ण छिद्र- ये तीन आकाश के कार्य हैं। रस, स्नेह तथा जिह्वा- ये तीनों जल के गुण या कार्य माने गये हैं। रूप, नेत्र और परिपाक- इन तीन गुणों के रूप में तेज की ही स्थिति बतायी जाती है। गन्ध, घ्राण तथा शरीर- ये तीनों भूमि के गुण माने गये हैं। प्राण, स्पर्श और चेष्टा– ये तीनों वायु के गुण बतायें गये हैं। राजन! इस प्रकार मैंने समस्त पाञ्चभौतिक गुणों की व्याख्या कर दी। भरतनन्दन! ईश्वर ने इन प्राणियों के शरीर में सत्त्व, रज, तम, काल, कर्म, बुद्धि तथा मनसहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की कल्पना की है। पैरों के तलुओं से लेकर ऊपर की ओर मस्तक से नीचे की ओर जितना भी शरीर है, इसके भीतर यह बुद्धि पूर्णरूप से व्याप्त हो रही है। मानव-शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन बताया गया है। बुद्धि को सातवाँ और क्षैत्रज्ञ को आठवाँ कहते हैं। पाँच इन्द्रियाँ और जीवात्मा- इन सबको कार्य-विभाग के अनुसार अलग-अलग समझना चाहिये। सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण तथा उनके सात्त्विक, राजस और तामस भाव जीवात्मा के ही आश्रित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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