चत्वारिंश (40) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण का शल्य को फटकारते हुए मद्र देश के निवासियो की निन्दा करना एवं उसे मार डालने की धमकी देना संजय कहते हैं- राजन! अमिततेजस्वी शल्य के इस प्रकार आक्षेप करने पर राधापुत्र कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा और यह वचन रूपी शल्य (बाण) छोड़ने के कारण ही इसका नाम शल्य पड़ा है, ऐसा निश्चय करके शल्य से इस प्रकार बोला। कर्ण ने कहा- शल्य! गुणवान पुरुषों के गुणों को गुणवान ही जानता है, गुणहीन नहीं। तुम तो समस्त गुणों से शून्य हो; फिर गुण-अवगुण क्या समझोगे? शल्य! मैं महात्मा अर्जुन के महान अस्त्र, क्रोध, बल, धनुष, बाण और पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ। शल्य! इसी प्रकार महीपाल शिरोमणि श्रीकृष्ण के माहात्मय को जैसा मैं जानता हूँ वैसा तुम नहीं जानते। शल्य! मैं अपना और पाण्डुपुत्र अर्जुन का बल-पराक्रम समझकर ही गाण्डीवधारी पार्थ को युद्ध के लिये बुलाता हूँ। शल्य! मेरा यह सुन्दर पंखों से युक्त बाण शत्रुओं का रक्त पीने वाला है। यह अकेले ही एक तरकस में रखा जाता है, जो बहुत ही स्वच्छ, कंकपत्र युक्त और भली-भाँति अलंकृत है। यह सर्पमय भयानक विर्षला बाण बहुत वर्षों तक चन्दन के चूर्ण में रखकर पूजित होता आया है, जो मनुष्यों में, हाथियों और घोड़ों के समुदाय का संहार करने वाला है। यह अत्यन्त भयंकर घोर बाण कवच तथा हड्डियों को भी चीर देने वाला है। मैं कुपित होने पर इन बाणों के द्वारा महान पर्वत मेरु को भी विदीर्ण कर सकता हूँ। इस बाण को मैं अर्जुन अथवा देवकीपुत्र श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे किसी पर नहीं छोड़ूंगा। मेरी सच्ची बात को तुम कान खोलकर सुन लो। शल्य! मैं अत्यन्त कुपित होकर उस बाण के द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन के साथ युद्ध करूँगा और वह कार्य मेंरे योग्य होगा। समस्त वृष्णिवंशी वीरों की सम्पत्ति श्रीकृष्ण पर ही प्रतिष्ठित है और पाण्डु के सभी पुत्रों की विजय अर्जुन पर ही अवलम्बित हैं; फिर उन दोनों को एक साथ युद्ध में पाकर कौन वीर पीछे लौट सकता है? शल्य! वे दोनों पुरुषसिंह एक साथ रथ पर बैठकर एकमात्र मुझ पर आक्रमण करने वाले हैं। देखो, मेरा जन्म कितना उत्तम है? धागों में पिरोयी हुई दो मणियों के समान प्रेमसूत्र में बँधे हुए उन दोनों फुफेरे और ममेरे भाइयों को, जो किसी से पराजित नहीं होते, तुम मेरे द्वारा मारा गया देखोगे। अर्जुन के हाथ में गाण्डीव धनुष है और श्रीकृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र है। एक कपिध्वज है तो दूसरा गरुड़ध्वज। शल्य! ये सब वस्तुएँ कायरों को भय देनेवाली हैं; परंतु मेरा हर्ष बढ़ाती हैं। तुम तो दुष्ट स्वभाव के मूर्ख मनुष्य हो। बड़े-बड़े युद्धों में कैसे शत्रुओं का सामना किया जाता है, इस बात से अनभिज्ञ हो। भय से तुम्हारा हृदय विदीर्ण-सा हो रहा है; अतः डर के मारे बहुत सी असंगत बातें कर रहे हो। दुष्ट और पापी देश में उत्पन्न हुए नीच क्षत्रियकुलांगार दुर्बुद्धि शल्य! तुम उन दोनों की किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये स्तुति करते हो; परंतु आज समरांगण में उन दोनों को मारकर बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हारा भी वध कर डालूँगा। तुम मेरे शत्रु होकर भी सुहृद बनकर मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से क्यों डरा रहै हो। आज या तो वे ही दोनों मुझे मार डालेंगे या मैं ही उन दोनो का संहार कर दूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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