महाभारत वन पर्व अध्याय 275 श्लोक 1-21

पच्‍चसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (275) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पच्‍चसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्‍पत्ति, तपस्‍या और वर प्राप्ति तथा कुबेर का रावण को शाप देना

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- राजन्! पुलस्‍त्‍य के क्रोध से उनके आधे शरीर से जो ‘विश्रवा’ नामक मुनि प्रकट हुए थे, वे कुबेर को कुपित दृष्टि से देखने लगे। युधिष्ठिर! राक्षसों के स्‍वामी कुबेर को जब यह बात मालूम हो गयी कि मेरे पिता मुझ पर रुष्‍ट रहते हैं, तब वे उन्‍हें प्रसन्न रखने का यन्‍त्र करने लगे। राजराज कुबेर स्‍वयं लंका में रहते थे। वे मनुष्‍यों द्वारा ढोई जाने वाली पालकी आदि की सवारी पर चलते थे। उन्‍होंने अपने पिता विश्रवा की सेवा के लिये तीन राक्षस कन्‍याओं को परिचारिकाओं के रूप में नियुक्‍त कर दिया था। भरतश्रेष्‍ठ! वे तीनों ही नाचने और गाने की कला में निपुण थीं तथा सदा ही उन महात्‍मा महर्षि को संतुष्‍ट रखने के लिये सचेष्‍ट रहती थीं। महाराज! उनके नाम थे- पुष्पोत्कटा, राका तथा मालिनी। वे तीनों सुन्‍दरियां अपना भला चाहती थीं। इसलिये एक-दूसरी से स्‍पर्धा रखकर मुनि की सेवा करती थीं। वे ऐर्श्‍यशाली महात्‍मा उनकी सेवाओं से प्रसन्न हो गये और उनमें से प्रत्‍येक को उनकी इच्‍छा के अनुसार लोकपालों के समान पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया।

पुष्‍पोत्‍कटा के दो पुत्र हुए रावण और कुम्भकर्ण। ये दोनों ही राक्षसों के अधिपति थे। भूमण्‍डल में इनके समान बलवान दूसरा कोई नहीं था। मालिनी ने एक पुत्र विभीषण को जन्‍म दिया। राका के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र का नाम खर था और पुत्री का शूर्पणखा। इन सब बालकों में विभीषण ही सबसे रूपवान्, सौभाग्‍यशाली, धर्मरक्षक तथा कर्तव्‍यपरायण थे। रावण के दस मस्‍तके थे। वही सब में ज्‍येष्‍ठ तथा राक्षसों का स्‍वामी था। उत्‍साह, बल, धैर्य और पराक्रम में भी वह महान् था। कुम्‍भकर्ण शारीरिक बल में सबसे बढ़ा-चढ़ा था। युद्ध में भी वह सबसे बढ़कर था। मायावी और रणकुशल तो था ही, वह निशाचर बड़ा भंयकर भी था। खर धनुर्विद्या में विशेष पराक्रमी था। वह ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाला तथा मांसाहारी था। शूर्पणखा की आकृति बड़ी भयानक थी। वह सिद्ध ऋषि-मुनियों की तपस्‍या में विघ्न डाला करती थी। वे सभी बालक वेदवेत्‍ता, शूरवीर तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले थे और अपने पिता के साथ गन्‍धमादन पर्वत पर सुखपूर्वक रहते थे।

एक दिन नरवाहन कुबेर अपने महान् ऐश्‍वर्य से युक्‍त होकर पिता के साथ बैठे थे। उसी अवस्‍था में रावण आदि ने उन्‍हें देखा। उनका वैभव देखकर इन बालकों के हृदय में डाह पैदा हो गयी। अत: उन्‍होंने मन-ही-मन तपस्‍या करने का निश्‍चय किया और घोर तपस्‍या के द्वारा उन्‍होंने ब्रह्माजी को संतुष्‍ट कर लिया। रावण सहस्रों वर्षों तक एक पैर पर खड़ा रहा। वह चित्‍त को एकाग्र रखकर पंचाग्निसेवन करता और वायु पीकर रहता था। कुम्‍भकर्ण ने भी आहार का संयम किया। वह भूमि पर सोता और कठोर नियमों का पालन करता था। विभीषण केवल एक सूखा पत्‍ता खाकर रहते थे। उनका भी उपवास में ही प्रेम था। बुद्धिमान एवं उदार बुद्धि विभीषण सदा जप किया करते थे। उन्‍होंने भी उतने समय तक तीव्र तपस्‍या की। खर और शूर्पणखा, ये दोनों प्रसन्न मन से तपस्‍या में लगे हुए अपने भाइयों की परिचर्या तथा रक्षा करते थे। एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर दुर्धर्ष दशानन ने अपना मस्‍तक काटकर अग्नि में उसकी आहुति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से लोकेश्‍वर ब्रह्माजी बहुत सुंतुष्‍ट हुए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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