महाभारत वन पर्व अध्याय 304 श्लोक 1-17

चतुरधिकत्रिशततम (304) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुरधिकत्रिशततम अध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


कुन्ती का पिता से वार्तालाप और ब्राह्मण की परिचर्या

कुन्ती बोली- राजन्! मैं नियमों में आबद्ध रहकर आपकी प्रतिज्ञा के अनुसार निरन्तर इन तपस्वी ब्राह्मण की सेवा-पूजा के लिये उपस्थित रहूँगी। राजेन्द्र! मैं झूठ नहीं बोलती हूँ। यह मेरा स्वभाव है कि मैं ब्राह्मणों की सेवा-पूजा करूँ और आपका प्रिय करना तो मेरे लिये परम कल्याण की बात है ही। ये पूजनीय ब्राह्मण यदि सायंकाल आवें, प्रात:काल पधारें अथवा रात या आधी रात में भी दर्शन दें, ये कभी भी मेरे मन में क्रोध उत्पन्न नहीं कर सकेंगे। मैं हर समय इनकी समुचित सेवा के लिये प्रस्तुत रहूँगी। राजेन्द्र! नरश्रेष्ठ! मेरे लिये महान् लाभ की बात यही है कि मैं आपकी आज्ञा के अधीन रहकर ब्राह्मणों की सेवा-पूजा करती हुई सदैव आपका हित साधन करूँ। महाराज! विश्वास कीजिये। आपके भवन में निवास करते हुए ये द्विजश्रेष्ठ कभी अपने मन के प्रतिकूल कोई कार्य नहीं देख पायेंगे। यह मैं आप से सत्य कहती हूँ।

निष्पाप नरेश! आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। मैं वही कार्य करने का प्रयत्न करूँगी, जो इन तपस्वी ब्राह्मण को प्रिय और आपके लिये हितकर हो। क्योंकि पृथ्वीपते! महाभाग ब्राह्मण भलीभाँति पूजित होने पर सेवक को तारने में समर्थ होते हैं और इसके विपरीत अपमानित होने पर विनाशकारी बन जाते हैं। मैं इस बात को जानती हूँ। अतः इन श्रेष्ठ ब्राह्मण को सब तरह से संतुष्ट रखूँगी। राजन्! मेरे कारण इन द्विजश्रेष्ठ से आपको कोई कष्ट नहीं प्राप्त होगा। राजेन्द्र! किसी बालिका द्वारा अपराध बन जाने पर भी ब्राह्मण लोग राजाओं का अमंगल करने को उद्यत हो जाते हैं, जैसे प्राचीन काल में सुकन्या द्वारा अपराध होने पर महर्षि च्यवन महाराज शर्याति का अनिष्ट करने को उद्यत हो गये थे। नरेन्द्र! आपने ब्राह्मण के प्रति बर्ताव करने के विषय में जो कुछ कहा है, उसके अनुसार मैं उत्तम नियमों के पालनपूर्वक इन श्रेष्ठ ब्राह्मण की सेवा में उपस्थित रहूँगी।'

इस प्रकार कहती हुई कुन्ती को बारंबार गले से लगाकर राजा ने उसकी बातों का समर्थन किया और कैसे-कैसे, क्या-क्या करना चाहिये, इसके विषय में उसे सुनिश्चित आदेश दिया। राजा बोले- भद्रे! अनिन्दिते! मेरे, तुम्हारे तथा कुल के हित के लिये तुम्हें निःशंकभाव से इसी प्रकार यह सब कार्य करना चाहिये। ब्राह्मणप्रेमी महायशस्वी राजा कुन्तीभोज ने पुत्री से ऐसा कहकर उन आये हुए द्विज की सेवा में पृथा को दे दिया और कहा- ‘ब्रह्मन्! यह मेरी पुत्री पृथा अभी बालिका है और सुख में पली हुई है। यदि आपका कोई अपराध कर बैठे, तो भी आप उसे मन में नहीं लाइयेगा। वृद्ध, बालक और तपस्वीजन यदि कोई अपराध कर दें, तो भी आप-जैसे महाभाग ब्राह्मण प्रायः कभी उन पर क्रोध नहीं करते। विप्रवर! सेवक का महान् अपराध होने पर भी ब्राह्मणों को क्षमा करनी चाहिये तथा शक्ति और उत्साह के अनुसार उनके द्वारा की हुई सेवा-पूजा स्वीकार कर लेनी चाहिये’।

ब्राह्मण ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा का अनुरोध मान लिया। इससे उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने ब्राह्मण को रहने के लिये हंस और चन्द्रमा की किरणों के समान एक उज्ज्वल भवन दे दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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