महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-11

विंशत्‍यधिकशततम(120) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


राजधर्म का सार रुप में वर्णन


युधिष्ठिर ने कहा- भारत! राजधर्म के तत्‍व को जानने वाले पूर्ववर्ती राजाओं ने पूर्वकाल में जिनका अनुष्‍ठान किया है, उन अनेक प्रकार के राजोचित बर्तावों का आपने वर्णन किया। भरतश्रेष्‍ठ! आपने पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित तथा सज्‍जन सम्‍मत जिन श्रेष्‍ठ राजधर्मो का विस्‍तार पूर्वक वर्णन किया हैं, उन्‍हीं को इस प्रकार संक्षिप्‍त करके बताइये, जिससे उनका विशेष रुप से पालन हो सके। भीष्‍मजी बोले- भूपाल! क्षत्रिय के लिये सबसे श्रेष्‍ठ धर्म माना गया है समस्‍त प्राणियों की रक्षा करना, परंतु यह रक्षा का कार्य कैसे किया जाय, उसको बता रहा हूं, सुनो। जैसे सांप खाने वाला मोर विचित्र पंख धारण करता है, उसी प्रकार धर्मज्ञ राजा को समय-समय पर अपना अनेक प्रकार का रुप प्रकट करना चाहिये। राजा मध्‍यस्‍थ-भाव से रहकर तीक्ष्‍णता, कुटिल नीति, अभय-दान, सरलता तथा श्रेष्‍ठभाव का अवलम्‍बन करे। ऐसा करने से ही वह सुख का भागी होता है। जिस कार्य के लिये जो हितकर हो, उसमें वैसा ही रुप प्रकट करे (उदाहरण के लिये अपराधी को दण्‍ड देते समय उग्र रुप और दीनों पर अनु्ग्रह करते समय शान्‍त एवं दयालु रुप प्रकट करे)।इस प्रकार अनेक रुप धारण करने वाले राजा का छोटा-सा कार्य भी बिगड़ने नहीं पाता है। जैसे शरद-ॠतु का मोर बोलता नहीं, उसी प्रकार राजा को भी मौन रहकर सदा राजकीय गुप्‍त विचारों को सुरक्षित रखना चाहिये। वह मधुर वचन बोले, सौम्‍य-स्‍वरुप से रहे, शोभा सम्‍पन्‍न होवे और शास्‍त्रों का विशेष ज्ञान प्राप्‍त करें।

बाढ़ के समय जिस ओर से जल बहकर गांवों को डूबा देने का संकट उपस्थित कर दे, उस स्‍थान पर जैसे लोग मजबूत बांध बांध देते हैं, उसी प्रकार जिन द्वारो से संकट आने की सम्‍भावना हो, उन्‍हें सुदृढ़ बनाने और बंद करने के लिये राजा को सतत प्रावधान रहना चाहिये। जैसे पर्वतों पर वर्षा होने से जो पानी एकत्र होकर नदी या तालाब के रुप में रहता है, उसका उपभोग करने के लिये लोग उसका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार राजा को सिद्ध ब्राह्मणों का आश्रय लेना चाहिये तथा जिस प्रकार धर्म का ढोंगी सिर पर जटा धारण करता हैं, उसी तरह राजा को भी अपना स्‍वार्थ सिद्ध करने की इच्‍छा से उच्‍च लक्षणों को धारण करना चाहिये। वह सदा अपराधियों को दण्‍ड देने के लिये उद्यत रहे, प्रत्‍येक कार्य सावधानी के साथ करे, लोगों के आय-व्‍यय देखकर ताड़ के वृक्ष से रस निकालने की भाँति उनसे धनरुपी रस ले (अर्थात् जैसे उस रस के लिये पेड़ को काट नहीं दिया जाता, उसी प्रकार प्रजा का उच्‍छेद न करे) राजा अपने दल के लोगों के प्रति विशुद्ध व्‍यवहार करे। शत्रु के राज्‍य में जो खेती की फसल हो, उसे अपने दल के घोड़ों और बैलों के पैरों से कुचलवा दे। अपना पक्ष बलवान् होने पर ही शत्रुओं पर आक्रमण करे और अपने में कहाँ कैसी दुर्बलता है, इसका भलीभाँति निरीक्षण करता रहे। शत्रु के दोषों को प्रकाशित करे और उसके पक्ष के लोगों को अपने पक्ष में आने के लिये विचलित कर दे। जैसे लोग जंगल से फूल चुनते हैं, उसी प्रकार राजा बाहर से धन का संग्रह करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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