महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-21

पंचदश (15) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


भागवान श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव करना

जनमेजय! ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! जब पाण्डवों ने अपने राष्ट्र पर विजय पा ली और राज्य में सब ओर शान्ति स्थापित हो गयी, उसके बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन इन दोनों वीरों ने क्या किया?

वैशम्पायन जी ने कहा- प्रजानाथ! नरेश्वर! जब पाण्डवों ने राष्ट्र पर विजय पा ली और सर्वत्र शान्ति स्थापित हो गयी, तब भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। स्वर्गलोक में विहार करने वाले दो देवेश्वरों की भाँति वे दोनों मित्र आनन्दमग्न हो विचित्र-विचित्र वनों में और पर्वतों के सुरम्य शिखरों पर विचरने लगे। पवित्र तीर्थों, छोटे तालाबों और नदियों के तटों पर विचरण करते हुए वे दोनों नन्दन वन में विहार करने वाले अश्विनीकुमारों के समान हर्ष का अनुभव करते थे। भरतनन्दन! फिर इन्द्रप्रस्थ में लौटकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन मयनिर्मित रमणीय सभा में प्रवेश करके आनन्दपूर्वक मनोविनोद करने लगे। पृथ्वीनाथ! वे दोनों महात्मा पुरातन ऋषिप्रवर नर और नारायण थे तथा आपस में बहुत प्रेम रखते थे। बातचीत के प्रसंग में वे दोनों मित्र सदा देवताओं तथा ऋषियों के वंशों की चर्चा करते थे और युद्ध की विचित्र कथाओं एवं क्लेशों का वर्णन किया करते थे।

भगवान श्रीकृष्ण सब प्रकार के सिद्धान्तों को जानने वाले थे। उन्होंने अर्जुन को विचित्र पद, अर्थ एवं सिद्धान्तों से युक्त बड़ी विलक्षण एवं मधुर कथाएँ सुनायीं। कुन्तीकुमार अर्जुन पुत्रशोक से संतप्त थे। सहस्रों भाई-बन्धुओं के मारे जाने का भी उनके मन में बड़ा दु:ख था। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने अनेक प्रकार की कथाएँ सुनाकर उस समय पार्थ को शान्त किया। महातपस्वी विज्ञानवेत्ता श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक अर्जुन को सांत्वना देकर अपना भार उतार दिया और वे सुखपूर्वक विश्राम-सा करने लगे। बातचीत के अन्त मेें गोविन्द ने गुडाकेश अर्जुन को अपनी मधुर वाणी द्वारा सांत्वना प्रदान करते हुए उनसे यह युक्तियुक्त बात कही।

भगवान श्रीकृष्ण बोले- शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन! धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने तुम्हारे बाहुबल का सहारा लेकर इस समूची पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर ली। नरश्रेष्ठ! भीमसेन तथा नकुल-सहदेव के प्रभाव से धर्मराज युधिष्ठिर इस पृथ्वी का निष्कण्टक राज्य भोग रहे हैं। धर्मज्ञ! राजा युधिष्ठिर ने यह निष्कण्टक राज्य धर्मबल से प्राप्त किया है। धर्म से ही राजा दुर्योधन युद्ध में मारा गया। धृतराष्ट्र के पुत्र अधर्म में रुचि रखने वाले, लोभी, कटुवादी और दुरात्मा थे। इसलिये अपने सगे-सम्बन्धियों सहित मार गिराये गये। कुरुकुलतिलक कुन्तीकुमार! धर्मपुत्र पृथ्वीपति राजा युधिष्ठिर आज तुमसे सुरक्षित होकर सर्वथा शान्त हुई समूची पृथ्वी का राज्य भोगते हैं।

शत्रुसूदन पाण्डुकुमार! तुम्हारे साथ रहने पर निर्जन वन में भी मुझे सुख और आनन्द मिल सकता है। फिर जहाँ इतने लोग और मेरी बुआ कुन्ती हों, वहाँ की तो बात ही क्या है? जहाँ धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, महाबली भीमसेन और माद्रीकुमार नकुल-सहदेव हों, वहाँ मुझे परम आनन्द प्राप्त हो सकता है। निष्पाप कुरुनन्दन! इस सभा भवन के रमणीय एवं पवित्र स्थान स्वर्ग के समान सुखद हैं। यहाँ तुम्हारे साथ रहते हुए बहुत दिन बीत गये। इतने दिनों तक मैं अपने पिता शूरसेनकुमार वसुदेव जी का दर्शन न कर सका। भैया बलदेव तथा अन्यान्य वृष्णिवंश के श्रेष्ठ पुरुषों के भी दर्शन से वंचित रहा। अत: अब मैं द्वारकापुरी को जाना चाहता हूँ। पुरुषवर! तुम्हें भी मेरे इस यात्रा सम्बंधी प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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