महाभारत आदि पर्व अध्याय 208 श्लोक 1-17

अष्‍टाधिकद्विशततम (208) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

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महाभारत: आदि पर्व: अष्‍टाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


सुन्‍द-उपसुन्‍द की तपस्‍या, ब्रह्मा जी के द्वारा उन्‍हें वर प्राप्‍त होना और दैत्‍यों के यहाँ आनन्‍दोत्‍सव

नारद जी ने कहा- कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर! यह वृत्‍तान्‍त जिस प्रकार सं‍घटित हुआ था, वह प्राचीन इतिहास तुम मुझसे भाइयों सहित विस्‍तारपूर्वक सुनो। प्राचीन काल में महान् दैत्‍य हिरण्यकशिपु के कुल में निकुम्‍भ नाम से प्रसिद्ध एक दैत्‍यराज हो गया है, जो अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी और बलवान् था। उसके महाबली और भयानक पराक्रमी दो पुत्र हुए, जिनका नाम था सुन्‍द और उपसुन्‍द। वे दोनों दैत्‍यराज बड़े भयंकर और क्रुर हृदय के थे। उनका एक ही निश्‍चय होता था और एक ही कार्य के लिये वे सदा सहमत रहते थे। उनके सुख और दु:ख भी एक ही प्रकार के थे। वे दोनों सदा साथ रहते थे। उनमें से एक के बिना दूसरा न तो खाता-पीता और न किसी से कुछ बात-चीत ही करता था। वे दोनों एक-दूसरे का प्रिय करते और परस्‍पर मीठे वचन बोलते थे। उनके शील और आचरण एक-से थे, मानो एक ही जीवात्‍मा दो शरीरों में विभक्‍त कर दिया गया हो। वे महाबली पराक्रमी दैत्‍य साथ-साथ बढ़ने लगे। वे प्रत्‍येक कार्य में एक ही निश्‍चय पर पहुँचते थे। किसी समय वे तीनों लोकों पर विजय पाने की इच्‍छा से एक मत होकर गुरु से दीक्षा ले विन्‍ध्यपर्वत पर आये और वहाँ कठोर तपस्‍या करने लगे। भूख और प्‍यास का कष्‍ट सहते हुए शिर पर जटा तथा शरीर पर वल्‍कल धारण किये वे दोनों भाई दीर्घकाल तक भारी तपस्‍या में लगे रहे। उनके सम्‍पूर्ण अंगों में मैल जम गयी थी, वे हवा पीकर रहते थे और अपने ही शरीर के मांसखण्‍ड काट-काटकर अग्नि में आहुति देते थे।

तदनन्‍तर बहुत समय तक पैरों के अंगूठों के अग्रभाग के बल पर खडे़ हो दोनों भुजाएं ऊपर उठाये एकटक दृष्टि से देखते हुए वे दोनों व्रत धारण करके तपस्‍या में संलग्‍न रहे। उन दैत्‍यों की तपस्‍या के प्रभाव से दीर्घकाल तक संतप्‍त होने के कारण विन्‍ध्‍यपर्वत धुआं छोड़ने लगा, यह एक अद्भुत-सी बात हुई। उनकी उग्र तपस्‍या देखकर देवताओं को बड़ा भय हुआ। वे देवतागण उनके तप को भंग करने के लिये अनेक प्रकार के विघ्‍न डालने लगे। उन्‍होंने बार-बार रत्‍नों के ढेर तथा सुन्‍दरी स्त्रियों को भेज-भेजकर उन दोनों को प्रलोभन में डालने की चेष्‍टा की; किंतु उन महान् व्रतधारी दैत्‍यों ने अपने तप को भंग नहीं किया। तत्‍पश्‍चात देवताओं ने महान् आत्‍मबल से सम्‍पन्‍न उन दोनों दैत्‍यों के सामने पुन: माया का प्रयोग किया। उनकी माया निर्मित बहनें, माताएं, पत्नियां तथा अन्‍य आत्‍मीयजन वहाँ भागते हुए आते और उन्‍हें कोई शूलधारी राक्षस बार-बार खदेड़ता तथा पृथ्‍वी पर पटक देता था। उनके आभूषण गिर जाते, वस्‍त्र खिसक जाते और बालों की लटें खुल जाती थीं। वे सभी आत्‍मीयजन सुन्‍द-उपसुन्‍द को पुकारकर चिखते हुए कहते- बेटा! मुझे बचाओ, भैया! मेरी रक्षा करो।’ यह सब सुनकर भी वे दोनों महान् व्रतधारी तपस्‍वी अपनी तपस्‍या से नहीं डिगे; अपने व्रत को नहीं तोड़ सके। जब उन दोनों में से एक भी न तो इन घटनाओं से क्षुब्‍ध हुआ ओर न किसी के मन में कष्‍ट का अनुभव हुआ, तब वे मायामयी स्त्रियां और वह राक्षस सब-के-सब अदृश्‍य हो गये। तब सम्‍पूर्ण लोकों के हितैषी पितामह साक्षात् भगवान् ब्रह्मा ने, उन दोनों महादैत्‍यों के निकट आकर उन्‍हें इच्‍छानुसार वर मांगने को कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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