चतु:सप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
नरश्रेष्ठ! वे प्यास से पीड़ित हो महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में आये। मनुष्यों में श्रेष्ठ महाराज विश्वामित्र को आया देख पूजनीय पुरुषों की पूजा करने वाले महर्षि वसिष्ठ ने उनका सत्कार करते हुए आतिथ्य ग्रहण करने के लिये आमन्त्रित किया। भारत! पाद्य, आचमनीय, स्वागत-भाषण तथा वन्य हविष्य आदि से उन्होंने विश्वामित्र जी का सत्कार किया। महात्मा वसिष्ठ जी के यहाँ एक कामधेनु थी, जो अमुक अमुक मनोरथों को पूर्ण करो यह कहने पर सदा उन-उन कामनाओं को पूर्ण कर दिया करती थी। ग्रामीण और जंगली अस्त्र, फल-फूल, दूध, षडरस भोजन, अमृत के समान मधुर परम उत्तम रसायन, स्वाने, पीने और चबाने योग्य भाँति-भाँति के पदार्थ, अमृत समान स्वादिष्ट चटनी आदि तथा चूसने योग्य ईख आदि वस्तुएं तथा भाँति-भाँति के बहुमुल्य रत्न एवं वस्त्र आदि सब सामग्रियों को उस कामधेनु ने प्रस्तुत कर दिया। सब प्रकार से उन सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुओं के द्वारा हे अर्जुन! राजा विश्वामित्र भली-भाँति पूजित हुए। उस समय वे अपनी सेना और मन्त्रियों के साथ बहुत संतुष्ट हुए। महर्षि की धेनु का मस्तक, ग्रीवा, जाघें, गलकम्बल, पूंछ और थन- ये छ: अंग बड़े एवं विस्तृत थे।[1] उसके पार्श्वभाग तथा उरु बड़े सुन्दर थे। वह पांच पृथुल अंगों से सुशोभित थी।[2] उसकी आंखें मेढ़क-जैसी थीं। आकृति बड़ी सुन्दर थी चारों थन मोटे और फैले हुए थे। वह सर्वथा प्रशंसा के योग्य थी। सुन्दर पूंछ, नुकीले कान और मनोहर सींगों के कारण वह बड़ी मनोरम जान पड़ती थी। उसके सिर और गर्दन विस्तृत एवं पुष्ट थे। उसका नाम नन्दिनी था। उसे देखकर विस्मित हुए गाधिनन्दन विश्वामित्र ने उसका अभिनंदन किया। और अत्यन्त सन्तुष्ट होकर राजा विश्वामित्र ने उस समय उन महर्षि से कहा- ब्रह्मन्! आप दस करोड़ गायें अथवा मेरा सारा राज्य लेकर इस नन्दिनी को मुझे दे दें। महामुने! इसे देकर आप राज्य भोग करें। वसिष्ठ जी ने कहा- अनघ! देवता, अतिथि और पितरों की पूजा एवं यज्ञ के हविष्य आदि के लिये यह दुधारु गाय नन्दिनी अपने यहाँ रहती है, इसे तुम्हारा राज्य लेकर भी नहीं दिया जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गौओं के मस्तक आदि छ: अंगो का बड़ा एवं विस्तृत होना शुभ माना गया है। जैसा कि शास्त्र का वचन है।
शिरो ग्रीवा सक्थिनी च सास्ना पुच्छमय स्तन:।
शुभान्येतानि धेनूनामायतानि प्रचक्षते।।
- ↑ गौओं का ललाट, दोनों नेत्र और दोनों कान-ये पांचों अंग पृथु (पुष्ट एवं विस्तृत) हों तो विद्वानों द्वारा अच्छे माने जाते हैं। जैसा कि शास्त्र का वचन हैं-ललाटं श्रवणौ चैव नथनद्वितथं तथा। पृथून्येतानि शस्यन्ते धेनूनां पंच सूरिभि:। (नीलकण्ठी टीका से)
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