महाभारत वन पर्व अध्याय 234 श्लोक 1-12

चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम (234) अध्‍याय: वन पर्व (द्रौपदी सत्‍यभामा सवांद पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


पतिदेव को अनुकूल करने का उपाय-पति की अनन्‍य भाव से सेवा

द्रौपदी बोली- सखी! मैं स्‍वामी के मन का आकषर्ण करने के लिये तुम्‍हें एक ऐसा मार्ग बता रही हूँ, जिसमें भ्रम अथवा छल-कपट के लिये तनिक भी स्‍थान नहीं है। यदि तुम यथावत् रूप से इसी पथ पर चलती रहोगी, तो स्‍वामी के चित्‍त को अपनी सौतों से हटाकर अपनी ओर अवश्‍य खींच सकोगी। सत्‍ये! स्त्रियों के लिये देवताओं सहित सम्‍पूर्ण लोकों में पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं हैं। पति के प्रसाद से नारी की सम्‍पूर्ण कामनाएं पूर्ण हो सकती हैं और यदि पति ही कुपित हो जाये, तो वह नारी की सभी आशाओं को नष्‍ट कर सकता है। सेवा द्वारा प्रसन्न किये हुए पति से स्त्रियों को (उत्‍तम) संतान, भाँति-भाँति के भोग, शय्या, आसन, सुन्‍दर दिखायी देने वाले वस्‍त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ, स्‍वर्गलोक तथा महान् यश की प्राप्ति होती है।

सखी! इस जगत् में कभी सुख के द्वारा सुख नहीं मिलता। पतिव्रता स्‍त्री दु:ख उठाकर ही सुख पाती है। तुम सौहार्द, प्रेम, सुन्‍दर वेश-भूषा-धारण, सुन्‍दर आसन समर्पण, मनोहर पुष्‍पमाला, उदारता, सुगन्धित द्रव्‍य एवं व्‍यवहार कुशलता से श्‍यामसुन्‍दर की निरन्‍तर आराधना करती रहो। उनके साथ ऐसा बर्ताव करो, जिससे वे यह समझकर कि 'सत्यभामा को मैं ही अधिक प्रिय हूँ’, तुम्‍हें ही हृदय से लगाया करें। जब महल के द्वार पर पधारे हुए प्राणवल्लभ का स्‍वर सुनायी पड़े, तब तुम उठकर घर के आंगन में आ जाओ और उनकी प्रतीक्षा में खड़ी रहो। जब देखो कि वे भीतर आ गये, तब तुरंत आसन और पाद्य के द्वारा उनका यथावत् पूजन करो। सत्‍ये! यदि श्‍यामसुन्‍दर किसी कार्य के लिये दासी को भेजते हों, तो तुम्‍हें स्‍वयं उठकर वह सब काम कर लेना चाहिये; जिससे श्रीकृष्ण को तुम्‍हारे इस सेवा-भाव का अनुभव हो जाये कि सत्‍यभामा सम्‍पूर्ण हृदय से मेरी सेवा करती है। तुम्‍हारे पति तुम्‍हारे निकट जो भी बात कहें, वह छिपाने योग्‍य न हो, तो भी तुम्‍हें उसे गुप्‍त ही रखना चाहिये। अन्‍यथा तुम्‍हारे मुख से उस बात को सुनकर यदि कोई सौत उसे श्‍यामसुन्‍दर के सामने कह दे, तो इससे उनके मन में तुम्‍हारी ओर से विरक्ति हो सकती है।

पतिदेव के जो प्रिय, अनुरक्‍त एवं हितैषी सुहृद् हों, उन्‍हें तरह-तरह के उपायों से खिलाओ-पिलाओ तथा जो उनके शत्रु, उपेक्षणीय और अहितकारक हों अथवा जो उनसे छल-कपट करने के लिये उद्यत रहते हों; उनसे सदा दूर रहो। दूसरे पुरुषों के समीप घमंड और प्रमाद का परित्‍याग करके मौन रहकर अपने मनोभाव को प्रकट न होने दो। कुमार प्रद्युम्न और साम्ब यद्यपि तुम्‍हारे पुत्र हैं, तथापि तुम्‍हें एकान्‍त में कभी उनके पास भी नहीं बैठना चाहिये। अत्‍यन्‍त ऊँचे कुल में उत्‍पन्न और पापाचार से दूर रहने वाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्‍हें सखीभाव स्‍थापित करना चाहिये। जो अत्‍यन्‍त क्रोधी, नशे में चूर रहने वाली, अधिक खाने वाली, चोरी की लत रखने वाली, दुष्‍ट और चंचल स्‍वभाव की स्त्रियां हों, उन्‍हें दूर से ही त्‍याग देना चाहिये। तुम बहुमूल्‍य हार, आभूषण और अंगराग धारण करके पवित्र सुगन्धित वस्‍तुओं से सुवासित हो अपने प्राणवल्लभ श्‍यामसुन्‍दर श्रीकृष्ण की आराधना करो। इससे तुम्‍हारे यश और सौभाग्‍य की वृद्धि होगी। तुम्‍हारे मनोरथ की सिद्धि तथा शत्रुओं का नाश होगा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदी-सत्‍यभामा-संवादपर्व में द्रौपदी द्वारा स्‍त्रीकर्तव्‍यकथन विषयक दो सौ चौतीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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