एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम (269) अध्याय: वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व )
महाभारत: वन पर्व: एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भूमण्डल के श्रेष्ठतम धनुर्धर पाँचों कुन्तीकुमार सब दिशाओं में घूम-फिरकर हिंसक पशुओं, वराहों और जंगली भैसों को मारकर पृथक्-पृथक् विचरते हुए एक साथ हो गये। उस समय हिंसक पशुओं और सांपों से भरा हुआ वह महान् वन सहसा चिड़ियों के चीत्कार से गूँज उठा तथा वन्य पशु भी भयभीत होकर आर्तनाद करने लगे। उन सब की आवाज सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा- ‘भाइयों! देखो, ये मृग और पक्षी सूर्य के द्वारा प्रकाशित पूर्व दिशा की ओर दौड़ते हुए अत्यन्त कठोर शब्द बोल रहे हैं। यह विशाल वन हमारे शत्रुओं द्वारा पीड़ित हो रहा है। अब शीघ्र आश्रम की ओर लौटो। हमें बिलम्ब नहीं करना चाहिये; क्योंकि मेरा मन बुद्धि की विवेकशक्ति को आच्छादित करके व्यथित तथा चिन्ता से दग्ध हो रहा है तथा मेरे शशीर में यह प्राणों का स्वामी (जीव) भयभीत हुआ छटपटा रहा है। जैसे गरुड़ के द्वारा सरोवर में रहने वाले महासर्प के पकड़ लिये जाने पर वह मथित-सा हो उठता है, जैसे बिना राजा का राज्य श्रीहीन हो जाता है, तथा जिस प्रकार रस से भरा हुआ घड़ा द्यूर्तों द्वारा (चुपके से) पी लिये जाने पर सहसा ख़ाली दिखायी देता है; उसी प्रकार शत्रुओं द्वारा काम्यकवन की भी दुरवस्था की गयी है, ऐसा मुझे जान पड़ता है’। तत्पश्चात् वे नरवीर पाण्डव हवा से भी अधिक तेज चलने वाले सिन्धुदेश के महान् वेगशाली अश्वों से जुते हुए सुन्दर एवं विशाल रथों पर बैठकर आश्रम की ओर चले। उस समय एक गीदड़ बड़े जोर से रोता हुआ लौटते हुए पाण्डवों के वामभाग से होकर निकल गया। इस अपशकुन पर विचार करके राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन और अर्जुन से कहा- ‘यह नीच योनि का गीदड़, जो हम लोगों के वामभाग से होकर निकला है, जैसा शब्द कर रहा है, उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि पापी कौरवों ने यहाँ आकर हमारी अवहेलना करते हुए हठपूर्वक भारी संहार मचा रक्खा है’। इस प्रकार उस विशाल वन में शिकार खेलकर लौटे हुए पाण्डव जब आश्रम के समीपवर्ती वन में प्रवेश करने लगे, तब उन्होंने देखा कि उनकी प्रिया द्रौपदी की दासी धात्रेयिका, जो उन्हीं के एक सेवक की स्त्री थी, रो रही है। राजा जनमेजय! उसे रोती देख सारथि इन्द्रसेन तुरंत रथ से कूद पड़ा और वहाँ से दौड़कर धात्रेयिका के अत्यन्त निकट जाकर उस समय इस प्रकार बोला- ‘तू इस प्रकार धरती पर पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुँह दीन होकर क्यों सूख रहा है? कहीं अत्यन्त निष्ठुर कर्म करने वाले पापी कौरवों ने यहाँ आकर राजकुमारी द्रौपदी का तिरस्कार तो नहीं किया?‘ धर्मराज युधिष्ठिर महारानी के लिये जिस प्रकार संतप्त हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह निश्चय है कि समस्त कुन्तीकुमार उनकी खोज में अभी जायेंगे। उनका रूप अचिन्त्य है। वे सुन्दर एवं विशाल नेत्रों से सुशोभित होती हैं तथा कुरुप्रवर पाण्डवों को अपने शरीर के समान प्यारी हैं। वे द्रौपदी देवी यदि पृथ्वी के भीतर प्रविष्ट हुई हों, स्वर्गलोक में गयी हों अथवा समुद्र में समा गयी हों, पाण्डव उन्हें अवश्य ढूंढ निकालेंगे। जो शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले और किसी से भी पराजित नहीं होने वाले हैं, जो सब प्रकार के क्लेश सहन करने में समर्थ हैं, ऐसे पाण्डवों की सर्वोत्तम रत्न के समान स्पृहणीय तथा प्राणों के समान प्रियतमा द्रौपदी का कौन मूर्ख अपहरण करना चाहेगा?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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