महाभारत आदि पर्व अध्याय 225 श्लोक 1-22

पंचविंशत्यधिकद्विशततम (225) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: पंचविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा और इन्द्र के द्वारा जल बरसाकर आग बुझाने की चेष्टा

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वे दोनों रथियों में श्रेष्ठ वीर दो रथों पर बैठकर खाण्डववन के दोनों ओर खडे़ हो गये और सब दिशाओं में घूम-घूमकर प्राणियों का महान् संहार करने लगे। खाण्डववन में रहने वाले प्राणी जहाँ-जहाँ भागते दिखायी देते, वहीं-वहीं वे दोनों प्रमुख वीर उनका पीछा करते। (खाण्डववन के प्राणियों को) शीघ्रतापूर्वक सब ओर दौड़ने वाले उन दोनों महारथियों का छिद्र नहीं दिखायी देता था, जिससे वे भाग सकें। रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों रथारूढ़ वीर अलातचक्र की भाँति सब ओर घूमते हुए ही दीख पड़ते थे। जब खाण्डववन में आग फैल गयी और वह अच्छी तरह जलने लगा, उस समय लाखों प्राणी भयानक चीत्कार करते हुए चारों ओर उछलने-कूदने लगे। बहुत से प्राणियों के शरीर का हिस्सा जल गया था, बहुतेरे आँच में झुलस गये थे, कितनों की आँखे फूट गयी थीं और कितनों के शरीर फट गये थे। ऐसी अवस्था में भी सब भाग रहे थे। कोई अपने पुत्रों को छाती से चिपकाये हुए थे, कुछ प्राणी अपने पिता और भाइयों से सटे हुए थे। वे स्नेहवश एक दूसरे को छोड़ न सके और वहीं काल के गाल में समा गये। कुछ जानवर दाँत कटकटाते, बार-बार उछलते कूदते और अत्यन्त चक्कर काटते हुए फिर आग में ही पड़ जाते थे।

कितने ही पक्षी पाँख, आँख और पञ्जों के जल जाने से धरती पर गिरकर छटपटा रहे थे। स्थान-स्थान पर मरणोन्मुख जीव-जन्तु दृष्टिगोचर हो रहे थे। जलाशय आग से तपकर काढ़े की भाँति खौल रहे थे। उनमें रहने वाले कछुए और मछली आदि जीव सब ओर निर्जीव दिखायी देते थे। प्राणियों के संहारस्थल बने हुए उस वन में कितने ही प्राणी अपने जलते हुए अंगों से मूर्तिमान् अग्नि के समान दीख पड़ते थे। अर्जुन ने कितने ही उड़ते हुए पक्षियों को अपने बाणों से टुकडे़-टुकडे़ करके प्रज्वलित आग में झोंक दिया। पहले तो पक्षी बड़े वेग से ऊपर को उड़ते, परंतु बाणों से सारा अंग छिद जाने पर जोर-जोर से आर्तनाद करते हुए पुनः खाण्डववन में ही गिर पड़ते थे। बाणों से घायल हुए झुंड के झुंड वनवासी जीवों का भयानक चीत्कार समुद्र मन्थन के समय होने वाले जल-जन्तुओं के करुणक्रन्दन के समान जान पड़ता था। प्रज्वलित अग्नि की बड़ी-बड़ी लपटें आकाश में ऊपर की ओर उठने और देवताओं के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न करने लगीं। उस लपट से संतप्त हुए देवता और महर्षि आदि सभी देवलोकवासी महात्मा असुरों का नाश करने वाले देवेश्वर सहस्राक्ष इन्द्र के पास गये। देवता बोले - अमरेश्वर! अग्निदेव इन सब मनुष्यों को क्यों जला रहे हैं? कहीं संसार का प्रलय तो नहीं आ गया है?

वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! देवताओं से यह सुनकर वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्द्र स्वयं वह घटना देखकर खाण्डववन को आग के भय से छुड़ाने के लिये चले। उन्होंने अपने साथ अनेक प्रकार के विशाल रथ ले लिये और आकाश में स्थित हो देवताओं के स्वामी वे इन्द्र जल की वर्षा करने लगे। देवराज इन्द्र से प्रेरित होकर मेघ रथ के घुरे के समान मोटी-मोटी असंख्य धाराएँ खाण्डववन में गिराने लगे। परंतु अग्नि के तेज से वे धाराएँ वहाँ पहुँचने से पहले आकाश में ही सूख जाती थी। अग्नि तक कोई धारा पहुँची ही नहीं। तब नमुचिनाशक इन्द्रदेव अग्नि पर अत्यन्त कुपित हो पुनः बड़े-बड़े मेघों द्वारा बहुत जल की वर्षा कराने लगे। आग की लपटों और जल की धाराओं से संयुक्त होने पर उस वन में धुआँ उठने लगा। सब ओर बिजली चमकने लगी और चारों ओर मेघों की गड़गड़ाहट का शब्द गूँज उठा। इस प्रकार खाण्डववन की दशा बड़ी भयंकर हो गयी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में इन्द्रकोप विषयक दो सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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