महाभारत विराट पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-10

सप्तविंश (27) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

अचार्य द्रोण की सम्मति

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर तत्त्वार्थदर्या महापराक्रमी द्रोणाचार्य ने कहा- ‘पाण्डव लोग शूरवीर, विद्वान्, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, कृतज्ञ और अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा मानने वाले उनके भक्त हैं। ऐसे महापुरुष न तो नष्ट ही होते हैं और न किसी से तिरस्कृत ही होते हैं। ‘उनमें धर्मराज तो नीति, धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले, भाइयों द्वारा पिता की भाँति सम्मानित, धर्म पर अटल रहने वाले, सत्यपरायण और भाइयों में सबसें श्रेष्ठ हैं।

राजन्! उनके भाई भी अपने से बड़ों के अनुगामी और अपने महात्मा बन्धु श्रीमान् अजातशत्रु युधिष्ठिर के भक्त हैं। धर्म राज भी सब भाइयों पर अत्यन्त स्नेह रखते है। ‘जो इस प्रकार आज्ञापालक, विनयशील और महात्मा हैं, ऐसे अपने छोटे भाइयों का नीतिज्ञ धर्मराज कैसे भला नहीं करेंगे ? ‘अतः मैं अपनी बुद्धि और अनुभव की दृष्टि से यह देखता हूँ कि पाण्डव लोग अपने अनुकूल समय के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं; वे नष्ट नहीं हो सकते। ‘इस समय जो कुछ करना है, वह खूब सोत्र-विचारकर शीघ्र किया जाना चाहिये। इसमें विलम्ब करना ठीक नहीं है।

सभी विषयों में धैर्य रखने वाले उन पाण्डवों के निवास स्थान का ही ठीक-ठीक पता लगाना चाहिये। वे सभी शूरवीर और तपस्या से आवृत हैं, अतः उन्हें पाना कठिन है। पा लेने पर उन्हें पहचानना तो और भी कठिन है। ‘कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर शुद्धचित्त, गुणवान्, सत्यवान्, नीतिमान्, पवित्र और तेज के पुन्ज हैं; अतः उन्हें पहचानना असम्भव है। आँखों से दीख जाने पर भी वे मनुष्य को मोह लेंगे- पहचाने नहीं जा सकेंगे। ‘इसलिये इन बातों को अच्छी तरह सोच समझकर ही हमें कोई काम करना चाहिये’।


इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में द्रोण वाक्य एवं गुप्तचर भेजने से सम्बन्ध रखने वाला सत्तईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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