महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-20

पंचदश (15) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवतद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
संजय का युद्ध के वृत्तान्‍त का वर्णन आरम्‍भ करना- दुर्योधन का दु
शासन को भीष्‍म की रक्षा के लिये समुचित व्‍यवस्‍था करने का आदेश


संजय ने कहा- महाराज! आपने जो ये बारंबार अनेक प्रश्न किये है। वे सर्वथा उचित और आपके योग्य ही हैं; परंतु यह सारा दोष आपको दुर्योधन के ही माथे पर नहीं मढ़ना चाहिए। जो मनुष्य अपने दुष्कर्मों के कारण अशुभ फल भोग रहा हो। उसे उस पाप की आशंका दूसरे पर नहीं करनी चाहिए। महाराज! जो पुरुष मनुष्य-समाज में सर्वथा निन्दनीय आचरण करता है। वह निन्दित कर्म करने के कारण सब लोगों के लिये मार डालने योग्य है। पाण्डव आप लोगों द्वारा अपने प्रति किये गये अपमान एवं कपटपूर्ण बर्ताव को अच्छी तरह जानते थे। तथापि उन्होंने केवल आपकी ओर देखकर- आपके द्वारा न्यायोचित बर्ताव होने की आशा रखकर दीर्घकाल तक अपने मन्त्रियों सहित वन में रहकर क्लेश भोगा और सब कुछ सहन किया।

भूपाल! मैंने हाथियों, घोड़ों तथा अमिततेजस्वी राजाओं के विषय में जो कुछ अपनी आंखों देखा है और योग बल से जिसका साक्षात्कार किया है, वह सब वृत्तान्त सुना रहा हूं, सुनिये। अपने मन को शोक में न डालिये। नरेश्वर! निश्चत ही दैव का यह सारा विधान मुझे पहले से ही प्रत्यक्ष हो चुका है। राजन! जिनके कृपा प्रसाद से मुझे परम उत्तम दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है, इन्द्रियातीत विषय को भी प्रत्यक्ष देखने वाली दृष्टि मिली है, दूर से भी सब कुछ सुनने की शक्ति, दूसरे के मन की बातों को समझ लेने की सामर्थ्‍यभूत और भविष्य का ज्ञान, आकाश में चलने-फिरने की उत्तम शक्ति तथा युद्ध के समय अस्त्रों से अपने शरीर के अछूते रहने का अद्‌भुत चमत्कार आदि बातें जिन महात्मा के वरदान से मेरे लिये सम्भव हुई हैं, उन्हीं आपके पिता पराशरनन्दन बुद्धिमान व्यास जी को नमस्कार करके भारतवंशियों के इस अत्यन्त अद्भुत, विचित्र एवं रोमांचकारी युद्ध का वर्णन आरम्भ करता हूँ।

आप मुझसे यह सब कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह विस्तारपूर्ण सुनें। महाराज! जब समस्त सेनाएं शास्त्रीय विधि के अनुसार व्यूह-रचनापूर्वक अपने-अपने स्थान पर युद्ध के लिये तैयार हो गयीं, उस समय दुर्योधन ने दुःशासन से कहा। ‘दु:शासन! तुम भीष्म जी की रक्षा करने वाले रथों को शीघ्र तैयार कराओ। सम्पूर्ण सेनाओं को भी शीघ्र उनकी रक्षा के लिये तैयार हो जाने की आज्ञा दो। मैं वर्षों से जिसके लिये चिन्तित था, वह यह सेनासहित कौरव-पाण्डवों का महान संग्राम मेरे सामने उपस्थित हो गया है। इस समय युद्ध में भीष्‍म जी की रक्षा से बढ़कर दूसरा कोई कार्य मैं आवश्‍यक नहीं समझता हूँ क्योंकि वे सुरक्षित रहें तो कुन्ती के पुत्रों, सोमकवंशियों तथा सृंजयों को भी मार सकते हैं। विशुद्ध हृदय वाले पितामह भीष्‍म मुझसे कह चुके हैं कि ‘मैं शिखण्डी को युद्ध में नहीं मारूँगा क्योंकि सुनने में आया है कि वह पहले स्त्री था: अतः रणभूमि में मेरे लिये वह सर्वथा त्याज्य है। इसलिये मेरा विचार है कि इस समय हमें विशेष रूप से भीष्‍म जी की रक्षा में ही तत्पर रहना चाहिए। मेरे सारे सैनिक शिखण्डी को मार डालने का प्रयत्न करें।

पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर दिशा के जो-जो वीर अस्त्र-विद्या में सर्वथा कुशल हों, वे ही पितामह (भीष्म) की रक्षा करें। यदि महाबलि सिंह भी अरक्षित-दशा में हो तो उसे एक भेड़िया भी मार सकता है। हमें चाहिए कि सियार के समान शिखण्डी के द्वारा सिंह सहद भीष्म को न मरने दें। अर्जुन के बायें पहिये की रक्षा युधामन्यु और दाहिने की रक्षा उत्तमौजा कर रहे हैं। अर्जुन को ये दो रक्षक प्राप्त हैं और अर्जुन शिखण्डी की रक्षा कर रहे हैं। अतः दुःशासन! भीष्म से उपेक्षित तथा अर्जुन से सुरक्षित होकर शिखण्डी जिस प्रकार गंगानन्दन भीष्म को न मार सके, वैसा प्रयत्न करो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत श्रीमद्भगवद्गगीता पर्व में दुर्योधन-दुशासन संवादविषयक पंद्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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