एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम (269) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
कपिल ने कहा- यम-नियमों का पालन करने वाले संन्यासी ज्ञानमार्ग का आश्रय लेकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। वे इस दृश्य प्रपंच को नश्वर समझते हैं। सम्पूर्ण लोकों में उनकी गति का कहीं कोई अवरोध नहीं होता। उन्हें सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व विचलित नहीं करते। वे न तो किसी को प्रणाम करते हैं और न आशीर्वाद ही देते हैं। इतना ही नहीं, वे विद्वान पुरुष कामनाओं के बन्धन में भी नहीं बंधते हैं। सम्पूर्ण पापों से मुक्त, पवित्र और निर्मल होकर सर्वत्र विचरते रहते हैं। वे मोक्ष की प्राप्ति और सर्वस्व के त्याग के लिये अपनी बुद्धि में दृढ़ निश्चय रखते हैं। ब्रह्म के ध्यान में तत्पर एवं ब्रह्मस्वरूप होकर ब्रह्म में ही निवास करते हैं। उन्हें वे सनातन लोक प्राप्त होते हैं, जहाँ शोक और दुख का सर्वथा अभाव है तथा जहाँ रजोगुण (काम-क्रोध आदि) का दर्शन नहीं होता। उस परमगति को पाकर उन्हें गार्हस्थ्य-आश्रम में रहने और यहाँ के धर्मों के पालन करने की क्या आवश्यकता रह जाती है? स्यूमरश्मि ने कहा- ज्ञान प्राप्त करके परब्रह्म में स्थित हो जाना ही यदि पुरुषार्थ की चरम सीमा है, यदि वही उत्तम गति है, तब तो गृहस्थ-धर्म का महत्त्व और भी बढ़ जाता है; क्योंकि गृहस्थों का सहारा लिये बिना कोई भी आश्रम न तो चल सकता है और न तो ज्ञान की निष्ठा ही प्रदान कर सकता है। जैसे समस्त प्राणी माता की गोद का सहारा पाकर ही जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ-आश्रम का आश्रय लेकर ही दूसरे आश्रम टिके हुए हैं। गृहस्थ ही यज्ञ करता है, गृहस्थ ही तप करता है। मनुष्य जो कुछ भी चेष्टा करता है- जिस किसी भी शुभ कर्म का आचरण करता है, उस धर्म का मूल कारण गार्हस्थ्य-आश्रम ही है। समस्त प्राणधारी जीव संतान के उत्पादन आदि से सुख का अनुभव करते हैं, परंतु संतान गार्हस्थ्य-आश्रम के सिवा अन्यत्र किसी तरह सुलभ नहीं है। कुश-काश आदि तृण, धान-जौ आदि औषधि, नगर के बाहर उत्पन्न होने वाली दूसरी औषधियाँ तथा पर्वत पर होने वाली जो औषधियाँ हैं, उन सबका मूल भी गार्हस्थ्य-आश्रम ही है (क्यों कि वहीं के यज्ञ से पर्जन्य (मेघ) की उत्पत्ति होती है, जिससे वर्षा आदि के द्वारा तृण-लता, औषधियाँ उत्पन्न होती हैं)। प्राणस्वरूप जो औषधियाँ हैं; उससे बाहर कोई दिखायी नहीं देता। गृहस्थाश्रम के धर्मों का पालन करने से मोक्ष नहीं होता है, ऐसी किसकी वाणी सत्य होगी। जो श्रद्धारहित, मूढ़ और सूक्ष्मदृष्टि से वंचित हैं, अस्थिर, आलसी, श्रान्त और अपने पूर्वकृत कर्मों से संतप्त हैं, वे अज्ञानी पुरुष ही संन्यास-मार्ग का आश्रय ले गृहस्थाश्रम में शान्ति का अभाव देखते हैं। वैदिक धर्म की सनातन मर्यादा तीनों लोकों का हित करने वाली एवं ध्रुव हैं। ब्राह्मण पूजनीय है और जन्मकाल से ही उसका सबके द्वारा समादर होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य– तीनों वर्णों में गर्भाधान से पहले वेदमन्त्रों का उच्चारण किया जाता है। फिर लौकिक और पारलौकिक सभी कार्यों में निसंदेह उन वेदमन्त्रों की प्रवृति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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