महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-18

तृतीय (3) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


व्यास जी का युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ के लिये धन की प्राप्ति का उपाय बताते हुए संवर्त और मरुत का प्रसंग उपस्थित करना

व्यास जी ने कहा- युधिष्ठिर! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारी बुद्धि ठीक नहीं है। कोई भी मनुष्य स्वाधीन होकर अपने-आप कोई काम नहीं करता है। यह मनुष्य अथवा पुरुष समुदाय ईश्वर से प्रेरित होकर ही भले-बुरे काम करता है।[1] अत: इसके लिये शोक करने की क्या आवश्यकता है? भरतनन्दन! यदि तुम अन्ततोगत्वा अपने-आपको ही युद्धरूपी पाप कर्म का प्रधान मानते हो तो वह पाप जिस प्रकार नष्ट हो सकता है, वह उपाय बताता हूँ, सुनो।

युधिष्ठिर! जो लोग पाप करते हैं, वे तप, यज्ञ और दान के द्वारा ही सदा अपना उद्धार करते हैं। नरेश्वर! पुरुषसिंह! पापाचारी मनुष्य यज्ञ, दान और तपस्या से ही पवित्र होते हैं। महामना देवता और दैत्य पुण्य के लिये यज्ञ करने का ही प्रयत्न करते हैं, अत: यज्ञ परम आश्रय है। यज्ञों द्वारा ही महामनस्वी देवताओं का महत्त्व अधिक हुआ है और यज्ञों से ही क्रियानिष्ठ देवताओं ने दानवों को परास्त किया है। भरतवंशी नरेश युधिष्ठिर! तुम राजसूय, अश्वमेध, सर्वधर्म और नरमेध यज्ञ करो। विधिवत दक्षिणा देकर बहुत से मनोवांछित पदार्थ, अन्न और धन से सम्पन्न अश्वमेध यज्ञ के द्वारा दशरथनन्दन श्री राम की भाँति यजन करो। तथा तुम्हारे पूर्व पितामह महापराक्रमी दुष्यन्तकुमार शकुन्तलानन्दन पृथ्वीपति राजा भरत ने जैसे यज्ञ किया था, उसी प्रकार तुम भी करो।

युधिष्ठिर ने कहा- विप्रवर! इसमें संदेह नहीं कि अश्वमेध यज्ञ सारी पृथ्वी को भी पवित्र कर सकता है, किन्तु इसके विषय में मेरा अभिप्राय है, उसे आप यहाँ सुन लें। द्विजश्रेष्ठ! अपने जाति-भाइयों का यह महान संहार करके अब मुझ में थोड़ा-सा भी दान देने की शक्ति नहीं रह गयी है; क्योंकि मेरे पास धन नहीं है। यहाँ जो राजकुमार उपस्थित हैं, ये सब-के-सब बालक और दीन हैं, महान संकट में पड़े हुए हैं और इनके शरीर का घाव भी अभी सूखने नहीं पाया है; अत: इन सबसे मैं धन की याचना नहीं कर सकता। द्विजश्रेष्ठ! स्वयं ही सारी पृथ्वी का विनाश कराकर शोकमग्न हुआ मैं इनसे यज्ञ के लिये कर किस तरह वसूल करूँगा। मुनिश्रेष्ठ! दुर्योधन के अपराध से यह पृथ्वी और अधिकांश राजा हम लोगों के माथे अपयश का टीका लगाकर नष्ट हो गये। दुर्योधन ने धन के लोभ से समस्त भूमण्डल का संहार कराया; किन्तु धन मिलना तो दूर रहा, उस दुर्बुद्धि का अपना खजाना भी खाली हो गया। अश्वमेध यज्ञ में समूची पृथ्वी का दक्षिणा देनी चाहिये। यही विद्वानों ने मुख्य कल्प माना है। इसके सिवा जो कुछ किया जाता है, वह विधि के विपरीत है। तपोधन! मुख्य वस्तु के अभाव में जो दूसरी कोई वस्तु दी जाती है, वह प्रतिनिधि दक्षिणा कहलाती है; किन्तु प्रतिनिधि दक्षिणा देने की मेरी इच्छा नहीं होती; अत: भगवान! इस विषय में आप मुझे उचित सलाह देने की कृपा करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह कथन युधिष्ठिर को सांत्वना देने के लिये गौणरूप में इस दृष्टि से है कि मरने वालों की मृत्यु उनके प्रारब्ध कर्मानुसार अवश्यमभावी थी; अत: जो कुछ हुआ है, ईश्वर प्रेरणा के ही अनुसार हुआ है।

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