पंचनवतितम (95) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पंचनवतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं– राजन्! इस प्रकार वे वीर पाण्डव विभिन्न स्थानों में निवास करते हुए क्रमश: नैमिषारण्य तीर्थ में आये। भरतनन्दन! नरेश्वर! तदनन्तर गोमती के पुण्य तीर्थों में स्नान करके पाण्डवों ने वहाँ गोदान और धन दान किया।[1] भारत! भूपाल! वहाँ देवताओं, पितरों तथा ब्राह्मणों को बार-बार तृप्त करके कन्यातीर्थ, अश्वतीर्थ, गोतीर्थ, कालकोटि तथा वृषप्रस्थगिरि में निवास करते हुए उन सब पाण्डवों ने बाहुदा नदी में स्नान किया। पृथ्वीपते! तदनन्तर उन्होंने देवताओं की यज्ञभूमि प्रयाग में पहुँचकर वहाँ गंगा-यमुना के संगम में स्नान किया। सत्यप्रतिज्ञ पाण्डव वहाँ स्नान करके कुछ दिनों तक उत्तम तपस्या में लगे रहे। उन पापरहित महात्माओं ने (त्रिवेणी तट पर) ब्राह्मणों को धन दान किया। भरतनन्दन! तत्पश्चात पाण्डव ब्राह्मणों के साथ ब्रह्माजी की वेदी पर गये, जो तपस्वीजनों से सेवित है। वहाँ उन वीरों ने उत्तम तपस्या करते हुए निवास किया। वे सदा कन्द-मूल, फल आदि वन्य हविष्य द्वारा ब्राह्मणों को तृप्त करते रहते थे। अनुपम तेजस्वी जनमेजय! प्रयाग से चलकर पाडव पुण्यात्मा एवं धर्मज्ञ राजर्षि गय के द्वारा यज्ञ करके शुद्ध किये हुए उत्तम पर्वत से उपलक्षित गया तीर्थ में गये। जहाँ गयशिर नामक पर्वत और बेंत की पंक्ति से घिरी हुई रमणीय महानदी है, जो अपने दोनों तटों से विशेष शोभा पाती है। वहाँ महर्षियों से सेवित, पावन शिखरों वाला, दिव्य एवं पवित्र दूसरा पर्वत भी है, जो अत्यन्त पुण्यदायक तीर्थ है। वहीं उत्तम ब्रह्मसरोवर है, जहाँ भगवान अगस्त्य मुनि वैवस्वत यम से मिलने के लिये पधारे थे। क्योंकि सनातन धर्मराज वहाँ स्वयं निवास करते हैं। राजन्! वहाँ सम्पूर्ण नदियों का प्राकट्य हुआ है। पिनाकपाणि भगवान महादेव उस तीर्थ में नित्य निवास करते हैं। वहाँ वीर पाण्डवों ने उन दिनों चातुर्मास्य व्रत ग्रहण करके महान् ऋर्षि यज्ञ अर्थात् वेदादि सत् शास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा भगवान की आराधना की। वहीं महान् अक्षय वट है। देवताओं की वह यज्ञभूमि अक्षय है और वहाँ किये हुए प्रत्येक सत्कर्म का फल अक्षय होता है। अविचल चित्त वाले पाण्डवों ने उस तीर्थ में कई उपवास किये। उस समय वहाँ सैकड़ों तपस्वी ब्राह्मण पधारे। उन्होंने शास्त्रों में विधिपूर्वक चातुर्मास्य यज्ञ किया। वहाँ आये हुए ब्राह्मण विद्या और तपस्या में बढे़-चढ़े तथा वेदों के पारंगत विद्वान थे। उन्होंने परस्पर मिलकर सभा में बैठकर महात्मा पुरुषों की पवित्र कथाएं कहीं। उनमें शमठ नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे, जो विद्या अध्ययन का व्रत समाप्त करके स्नातक हो चुके थे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन का व्रत ले रखा था। राजन्! शमठ ने वहाँ अमूर्तरया के पुत्र महाराज गय की कथा इस प्रकार कही। शमठ बोले- भरतनन्दन युधिष्ठिर! अमूर्तरया के पुत्र गय राजर्षियों में श्रेष्ठ थे। उनके कर्म बड़े ही पवित्र एवं पावन थे। मैं उनका वर्णन करता हूं, सुनो। राजन्! यहाँ राजा गय ने बड़ा भारी यज्ञ किया था। उसमें बहुत अन्न खर्च हुआ था और असंख्य दक्षिणा बांटी गयी थी। उस यज्ञ में अन्न के सैकड़ों और हजारों पर्वत लग गये थे। घी के कई सौ कुण्ड और दही की नदियां बहती थीं। सहस्त्रों प्रकार के उत्तमोतम व्यंजनों की बाढ़-सी आ गयी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ पाण्डवों के द्वारा गोदान और धनदान करने के विषय में यह शंका होती है कि इनके पास ये सब कहाँ से आये? पर ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि वनपर्व के बारहवें अध्याय में आता है कि काम्यकवन में पांडवों से मिलने के लिए भगवान श्रीकृष्ण एवं भोजवंशी, वृष्णिवंशी और अंधक कुल के राजागण तथा द्रुपद, धृष्टद्युम्न, धृष्टकेतु एवं केकय राजकुमार आये थे। उनका पांडवों से मिलकर अपने-अपने राज्य में लौट जाने का वर्णन भी वनपर्व के बाईसवें अध्याय में आया है। इससे अनुमान होता है कि इन राजाओं ने पांडवों को भेंट में प्रचुर धन दिया था।
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