द्वात्रिंशदधिकद्विशततम (232) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: द्वात्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर बोले- भगवान्! विप्रवर! तीनों लोकों में महामना कार्तिकेय के जो-जो नाम विख्यात हैं, मैं उन्हें सुनना चाहता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर महातपस्वी महात्मा भगवान् मार्कण्डेय ने ऋषियों के समीप इस प्रकार कहा। मार्कण्डेय जी बोले- राजन्! आग्नेय, स्कन्द, दीप्तकीर्ति, अनामय, मयूरकेतु, धर्मात्मा, भूतेश, महिषमर्दन, कामजित्, कामद, कान्त, सत्यवाक, भुवनेश्वर, शिशु, शीघ्र, शुचि, चण्ड, दीप्तवर्ण, शुभानन, अमोघ, अनघ, रौद्र, प्रिय, चन्द्रानन, दीप्तशक्ति, प्रशान्तात्मा, भद्रकृत्, कूटमोहन, षष्ठीप्रिय, धर्मात्मा, पवित्र, मातृवत्सल, कन्याभर्ता, विभक्त, स्वाहेय, रेवतीसुत, प्रभु, नेता, विशाख, नैगमेय, सुदुश्वर, सुव्रत, ललित, बालक्रीडनकप्रिय, आकाशचारी, ब्रह्मचारी, शूर, शखणोद्भव, विश्वामित्रप्रिय, देवसेनाप्रिय, वासुदेवप्रिय, प्रिय और प्रियकृत्-ये कार्तिकेय जी के दिव्य नाम हैं। जो इनका पाठ करता है, वह धन, कीर्ति तथा स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है। कुरु कुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर! अब मैं देवताओं तथा ऋषियों से सेवित, असंख्य नामों तथा अनन्त शक्ति से सम्पन्न, शक्ति नामक अस्त्र धारण करने वाले वीरवर षडानन गुह की स्तुति करता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। स्कन्ददेव! आप ब्राह्मणहितैषी, ब्रह्मात्मज, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ, ब्राह्मणप्रिय, ब्राह्मणों के समान व्रतधारी, ब्रह्मज्ञ तथा ब्राह्मणों के नेता हैं। आप स्वाहा, स्वधा, परम पवित्र, मन्त्रों द्वारा प्रशंसित और सुप्रसिद्ध षडर्चि (छ: ज्वालाओं से युक्त) अग्नि हैं। आप ही संवत्सर, छ: ऋतुएं, पक्ष, मास, अयन और दिशाएं हैं। आप कमलनयन, कमलमुख, सहस्रवदन और सहस्रबाहु हैं। आप ही लोकपाल, सर्वोत्तम हविष्य तथा सम्पूर्ण देवताओं और असुरों के पालक हैं। आप ही सेनापति, अत्यन्त कोपवान, प्रभु, विभु और शत्रुविजयी हैं। आप ही सहस्रभू और पृथ्वी हैं। आप ही सहस्रों प्राणियों को सन्तोष देने वाले तथा सहस्रभोक्ता हैं। आप के सहस्रों मस्तक हैं। आपके रूप का कहीं अन्त नहीं है। आपके सहस्रों चरण हैं। गुह! आप शक्ति धारण करते हैं। देव! आप अपने इच्छानुसार गंगा, स्वाहा, पृथ्वी तथा कृत्तिकाओं के पुत्ररूप से प्रकट हुए हैं। षडानन! आप मुर्गे से खेलते हैं तथा इच्छानुसार नाना प्रकार के कमनीयरूप धारण करते हैं। आप सदा ही दीक्षा, सोम, मरुद्गण, धर्म, वायु, गिरिराज तथा इन्द्र हैं। आप सनातनों में भी सनातन है। प्रभुओं के भी प्रभु हैं। आपका धनुष भंयकर है। आप सत्य के प्रवर्तक, दैत्यों का संहार करने वाले, शत्रुविजयी तथा देवताओं में श्रेष्ठ हैं। जो सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्म तप है, वह आप ही हैं। आप ही कार्यकारण-तत्व के ज्ञाता तथा कार्यकारणस्वरूप हैं। धर्म, काम तथा इन दोनों से परे जो मोक्ष तत्व है, उसके भी आप ही ज्ञाता हैं। महात्मन्! यह सम्पूर्ण जगत् आपके तेज से प्रकाशित होता है। समस्त देवताओं के प्रमुख वीर! आपकी शक्ति से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। लोकनाथ! मैंने यथाशक्ति आपका स्तवन किया है। बारह नेत्रों और भुजाओं से सुशोभित देव! आपको नमस्कार है। इससे परे जो आपका स्वरूप है, उसे मैं नहीं जानता। जो ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो स्कन्ददेव के इस जन्म वृत्तान्त को पढ़ता है, ब्राह्मणों को सुनाता है अथवा स्वयं ब्राह्मण के मुख से सुनता है, वह धन, आयु, उज्ज्वल यश, पुत्र, शत्रुविजय तथा तुष्टि-पुष्टि पाकर अन्त में स्कन्द के लोक में जाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में कार्तिकेय स्तुति विषयक दो सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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