महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 360 श्लोक 1-20

षष्ट्यधिकत्रिशततम (360) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षष्ट्यधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


पत्नी के धर्मयुक्त वचनों से नागराज के अभिमान एवं रोष का नाश और उनका ब्राह्मण को दर्शन देने के लिये उद्यत होना

नाग ने पूछा - पवित्र मुस्कान वाली देवि! ब्राह्मणरूप में तुमने किसका दर्शन किया है ? वे ब्राह्मण कोई मनुष्य हैं या देवता ?

यशस्विनि! भला कौन मनुष्य मुझे देखने की इच्छा कर सकता है और यदि दर्शन की इच्छा करे भी तो कौन इस तरह मुझे आज्ञा देकर बुला सकता है ? भाविनी! सुरसा के वंशज नाग महापराक्रमी और अत्यन्त वेगशाली होते हैं। वे देवताओं, असुरों और देवर्षियों के लिये भी वन्दनीय हैं। हम लोग भी अपने सेवक को वर देने वाले हैं। विशेषतः मनुष्यों के लिये हमारा दर्शन सुलभ नहीं है, ऐसी मेरी धारणा है।

नागपत्नी बोली - अत्यन्त क्रोधी स्वभाव वाले वायुभोजी नागराज! उन ब्राह्मण की सरलता से तो मैं यही समझती हूँ कि वे देवता नहीं हैं। मुझेउनमें एक बहुत बड़ी विशेषता यह जान पड़ी है कि वे आपके भक्त हैं। जैसे वर्षा के जल का प्रेमी पपीहा पक्षी पानी के लिये वर्षा की बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार वे ब्राह्मण किसी दूसरे कार्य को सिद्ध करने की इच्छा से आपका दर्शन चाहते हैं। वे आपका दर्शन छोड़कर दूसरी किसी वस्तु को विघ्न समझते हैं; अतः वह विघ्न उन्हें नहीं प्राप्त होना चाहिये। उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ आपके समान कोई सद्गृहस्थ अतिथि की उपेक्षा करके घर में नहीं बैइता है। अतः आप अपने सहज रोष को त्यागकर इन ग्राह्मण देवता का दर्शन कीजिये। आज इनकी आशा भ्रग करके अपने-आपको भस्म न कीजिये। जो आशा लगाकर अपनी शरण में आये हों, उनके आँसू जो नहीं पोंछता है, वह राजा हो या राजकुमार, उसे भ्रूण हत्या का पाप लगता है। मौन रहने से ज्ञानरूपी फल की प्रापित होती है, दान देने से महान् यश की वृद्धि होती है। सत्य बोलने से वाणी की पटुता और परलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। भूदान करने से मनुष्य आरम-धर्म के पालन के समान उत्तम गति पाता है। न्यायपूर्वक धन का उपार्जन करके पुरुष श्रेष्ठ फल का भागी होता है।।11।। अपनी रुचि के अनुकूल कर्म यदि पाप के सम्पर्क से रहित और अपने लिये हितकर हो तो उसे करके कोई भी नरक में नहीं पड़ता है। ऐसा धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं।।12।।नाग ने कहा - साध्वि! मुझमें अहंकार के कारण अभिमान नहीं है; अपितु जाति-दोष के कारण महान् रोष भरा हुआ है। मेरे उस संकल्पजनित रोष को अब तुमने अपनी वाणीरूप अग्नि से जलाकर भस्म कर दिया। पतिव्रते! मैं रोष से बढ़कर मोह में डालने वाला दूसरा कोई दोष नहीं देखता और क्रोध के लिये सर्प ही अधिक बदनाम हैं।।14।। इन्द्र से भी टक्कर लेने वाला दशानन रावण रोष के अधीन होकर युद्ध में श्रीरामचन्दजी के हाथ से मारा गया। ‘होमधेनु के बछड़े का अपहरण करके उसे राजा के अन्तःपुर मे रख दिया गया है’ ऐसा सुनकर परशुरामजी ने तिरस्कारजनक रोष से भरे हुए कार्तवीर्य-पुत्रों को मार डाला। महाबली राजा कार्तवीर्य अर्जुन इन्द्र के समान पराक्रमी था; परंतु रोष के ही कारण जमदग्निनन्दन परशुराम के द्वारा युद्ध में मारा गया। इसलिये आज तुम्हारी बात सुनकर ही तपस्या के शत्रु और कल्याण मार्ग से भ्रष्ट करने वाले इस क्रोध को मैंने काबू में कर लिया है। विशाल लोचने! मैं अपनी एवं अपने सौभाग्य की विशेषरूपउ से प्रशंसा करता हूँ, जिसे तुम जैसी सद्गुणवती तथा कभी विलग न होने वाली पत्नी प्राप्त हुई है। यह लो, अब मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ वे ब्राह्मण देवता विराजमान हैं। वे जो कहेंगे वही करूँगा। वे सर्वथा कृतार्थ होकर यहाँ से जायँगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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