महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 1-19

सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


वंश परम्परा का कथन और भगवान श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन

ऋषियों ने कहा- भगदेवता के नेत्रों का विनाश करने वाले पिनाकधारी विश्ववन्दित भगवान शंकर! अब हम वासुदेव (श्रीकृष्ण) का माहात्म्य सुनना चाहते हैं।

महेश्वर ने कहा- मुनिवरो! भगवान सनातन पुरुष श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी से भी श्रेष्ठ हैं। वे श्रीहरि जाम्बूनद नामक सुवर्ण के समान श्याम कान्ति से युक्त हैं। बिना बादल के आकाश में उदित सूर्य के समान तेजस्वी हैं। उनकी भुजाएँ दस हैं, वे महान तेजस्वी हैं, देवद्रोहियों का नाश करने वाले श्रीवत्सभूषित भगवान हृषीकेश सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। ब्रह्मा जी उनके उदर से और मैं उनके मस्तक से प्रकट हुआ हूँ। उनके सिर के केशों से नक्षत्रों और ताराओं का प्रादुर्भाव हुआ है। रोमावलियों से देवता और असुर प्रकट हुए हैं। समस्त ऋषि और सनातन लोक उनके श्रीविग्रह से उत्पन्न हुए हैं।

वे श्रीहरि स्वयं ही सम्पूर्ण देवताओं के गृह और ब्रह्मा जी के भी निवासस्थान हैं। इस सम्पूर्ण पृथ्वी के स्रष्टा और तीनों लोकों के स्वामी भी वे ही हैं। वे ही चराचर प्राणियों का संहार भी करते हैं। वे देवताओं में श्रेष्ठ, देवताओं के रक्षक, शत्रुओं को संताप देने वाले, सर्वज्ञ, सब में ओतप्रोत, सर्वव्यापक तथा सब ओर मुख वाले हैं। वे ही परमात्मा, इन्द्रियों के प्रेरक और सर्वव्यापी महेश्वर हैं। तीनों लोकों में उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे ही सनातन, मधुसूदन और गोविन्द आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। सज्जनों को आदर देने वाले वे भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में समस्त राजाओं का संहार करायेंगे। वे देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये पृथ्वी पर मानव-शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं।

उन भगवान! त्रिविक्रम की शक्ति और सहायता के बिना सम्पूर्ण देवता भी कोई कार्य नहीं कर सकते। संसार में नेता के बिना देवता अपना कोई भी कार्य करने में असमर्थ हैं और ये भगवान श्रीकृष्ण सब प्राणियों के नेता हैं। इसलिये समस्त देवता उनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। देवताओं की रक्षा और उनके कार्य साधन में संलग्न रहने वाले वे भगवान वासुदेव ब्रह्मस्वरूप हैं। वे ही ब्रह्मर्षियों को सदा शरण देते हैं। ब्रह्मा जी उनके शरीर के भीतर अर्थात उनके गर्भ में बड़े सुख के साथ रहते हैं। सदा सुखी रहने वाला मैं शिव भी उनके श्रीविग्रह के भीतर सुखपूर्वक निवास करता हूँ। सम्पूर्ण देवता उनके श्रीविग्रह में सुखपूर्वक निवास करते हैं। वे कमलनयन श्रीहरि अपने गर्भ (वक्षःस्थल) में लक्ष्मी को निवास देते हैं। लक्ष्मी के साथ ही वे रहते हैं।

शारंग धनुष, सुदर्शन चक्र और नन्दक नामक खड्ग- उनके आयुध हैं। उनकी ध्वजा में सम्पूर्ण नागों के शत्रु गरुड़ का चिह्न सुशोभित है। वे उत्तम शील, शम, दम, पराक्रम, वीर्य, सुन्दर शरीर, उत्तम दर्शन, सुडौल आकृति, धैर्य, सरलता, कोमलता, रूप और बल आदि सद्गुणों से सम्पन्न हैं। सब प्रकार के दिव्य और अद्भुत अस्त्र-शस्त्र उनके पास सदा मौजूद रहते हैं। वे योगमाया से सम्पन्न और हजारों नेत्रों वाले हैं। उनका हृदय विशाल है। वे अविनाशी, वीर, मित्रजनों के प्रशंसक, ज्ञाति एवं बन्धु-बान्धवों के प्रिय, क्षमाशील, अहंकाररहित, ब्राह्मणभक्त, वेदों का उद्धार करने वाले, भयातुर पुरुषों का भय दूर करने वाले और मित्रों का आनन्द बढ़ाने वाले हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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