महाभारत आदि पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-20

पंचाधिकशततम (105) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: पंचाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


व्‍यास जी के द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्‍डु और विदुर की उत्‍पत्ति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर सत्यवती ठीक समय पर अपनी ऋतुस्नाता पुत्रवधू को शय्या पर बैठाती हुई धीरे से बोली- ‘कौसल्‍ये! तुम्‍हारे एक देवर हैं, वे ही आज तुम्‍हारे पास गर्भाधान के लिये आयेंगे। तुम सावधान होकर उनकी प्रतीक्षा करो। वे ठीक आधी रात के समय यहाँ पधारेंगे’। सास की बात सुनकर कौसल्‍या पवित्र शय्या पर शयन करके उस समय मन-ही-मन भीष्‍म तथा अन्‍य श्रेष्ठ कुरुवंशियों का चिन्‍तन करने लगी। उस समय नियोगविधि के अनुसार सत्यवादी महर्षि व्यास ने अम्बिका के महल में (शरीर पर घी चुपड़े हुए, संयमचित्त, कुत्सित रुप में) प्रवेश किया। उस समय बहुत से दीपक वहाँ प्रकाशित हो रहे थे। व्‍यासजी के शरीर का रंग काला था, उनकी जटाऐं पिंगल वर्ण की ओर आंखें चमक रही थीं तथा दाढी-मूँछ भूरे रंग की दिखाई देती थी। उन्‍हें देखकर देवी कौसल्‍या (भय के मारे) अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये। माता का प्रिय करने की इच्‍छा से व्‍यासजी ने उसके साथ समागम किया; परंतु काशिराज की कन्‍या भय के मारे उनकी ओर अच्‍छी तरह देख न सकी। जब व्‍यास जी उसके महल से बाहर निकले, तब माता सत्‍यवती ने आकर उनसे पूछा- ‘बेटा! क्‍या अम्बिका के गर्भ से कोई गुणवान् राजकुमार उत्‍पन्न होगा?’

माता का यह वचन सुनकर सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यास जी बोले- मां! वह दस हजार हाथियों के समान बलवान्, विद्वान्, राजर्षियों में श्रेष्ठ, परमसौभाग्‍यशाली, महापराक्रमी तथा अत्‍यन्‍त बुद्धिमान् होगा। उस महामना के भी सौ पुत्र होंगे। किंतु माता के दोष से वह बालक अन्‍धा ही होगा’ व्‍यासजी की यह बात सुनकर माता ने कहा- ‘तपोधन! कुरुवंश का राजा अन्‍धा हो यह उचित नहीं है। अत: कुरुवंश के लिये दूसरा राजा दो, जो जाति भाइयों तथा समस्‍त कुल का संरक्षक और पिता का वंश बढ़ाने वाला हो’। महायशस्‍वी व्‍यास जी ‘तथास्‍तु‘ कहकर वहाँ से निकल गये। प्रसव का समय आने पर कौसल्‍या ने उसी अन्‍धे पुत्र को जन्‍म दिया।

जनमेजय! तत्‍पश्चात् देवी सत्‍यवती ने अपनी दूसरी पुत्रवधू को समझा-बुझाकर गर्भाधान के लिये तैयार किया और इसके लिये पूर्ववत् महर्षि व्‍यास का आवाहन किया। फि‍र महर्षि ने उसी (नियोग की संयमपूर्ण) विधि से देवी अम्‍बालिका के साथ समागम किया। भारत़! महर्षि व्‍यास को देखकर वह भी कान्तिहीन तथा पाण्‍डुवर्ण की-सी हो गयी। जनमेजय! उसे भयभीत, विषादग्रस्‍त तथा पाण्‍डुवर्ण की-सी देख सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यास ने यों कहा- ‘अम्‍बालिके! तुम मुझे विरुप देखकर पाण्‍डु वर्ण की-सी हो गयी थीं, इसलिये तुम्‍हारा यह पुत्र पाण्‍डु रंग का ही होगा। शुभानने! इस बालक का नाम भी संसार में ‘पाण्‍डु’ ही होगा।’ ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् व्‍यास वहाँ से निकल गये। उस महल से निकलने पर सत्‍यवती ने अपने पुत्र से उसके विषय में पूछा। तब व्‍यास जी ने भी माता से उस बालक के पाण्‍डु वर्ण होने की बात बता दी। उसके बाद सत्‍यवती ने पुन: एक दूसरे पुत्र के लिये उनसे याचना की। महर्षि ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर माता की आज्ञा स्‍वीकार कर ली।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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