महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-16

=सप्तविंश (27) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


अध्यात्मविषयक महान् वन का वर्णन

ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! जहाँ संकल्परूपी डाँस और मच्छरों की अधिकता होती है। शोक और हर्षरूपी गर्मी, सर्दी का कष्ट रहता है, मोहरूपी अन्धकार फैला हुआ है, लोभ तथा व्याधिरूपी सर्प विचरा करते हैं। जहाँ विषयों का ही मार्ग है, जिसे अकेले ही तै करना पड़ता है तथा जहाँ काम और क्रोधरूपी शत्रु डेरा डाले रहते हैं, उस संसाररूपी दुर्गम पथ का उल्लंघन करके अब मैं ब्रह्मरूपी महान वन में प्रवेश कर चुका हूँ।

ब्राह्मणी ने पूछा- महाप्राज्ञ! वह वन कहाँ है? उसमें कौन-कौन से वृक्ष, गिरि, पर्वत और नदियाँ हैं तथा वह कितनी दूरी पर है।

ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! उस वन में न भेद है न अभेद, वह इन दोनों से अतीत है। वहाँ लौकिक सुख और दु:ख दोनों का अभाव है। उससे अधिक छोटी, उससे अधिक बड़ी और उससे अधिक सूख्म भी दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उसके समान सुखरूप भी कोई नहीं है। उस वन में प्रवष्टि हो जाने पर द्विजातियों को न हर्ष होता है, न शोक। न तो वे स्वयं किन्हीं प्राणियों से डरते हैं और न उन्हीं से दूसरे कोई प्राणी भय मानते हैं। वहाँ सात बड़े बड़े वृक्ष हैं, सात उन वृक्षों के फल हैं तथा सात ही उन फलों के भोक्ता अतिथि हैं। सात आश्रम हैं। वहाँ सात प्रकार की समाधि और सात प्रकार की दीक्षाएँ हैं। यही उस वन का स्वरूप है। वहाँ के वृक्ष पाँच प्रकार के रंगों के दिव्य पुष्पों और फलों की सृष्टि करते हुए सब ओर से वन को व्याप्त करके स्थित हैं। वहाँ दूसरे वृक्षों ने सुन्दर दो रंग वाले पुष्प और फल उत्पन्न करते हुए उस वन को सब ओर से व्याप्त कर रखा है। तीसरे वृक्ष वहाँ सुगन्धयुक्त दो रंग वाले पुष्प और फल प्रदान करते हुए उस वन को व्याप्त करके स्थित हैं। चौथे वृक्ष सुगन्धयुक्त केवल एक रंग वाले पुष्प और फलों की सृष्टि करते हुए उस वन के सब ओर फैले हैं।

वहाँ दो महावृक्ष बहुत से अव्यक्त रंग वाले पुष्प और फलों की रचना करते हुए उस वन को व्याप्त करके स्थित हैं। उस वन में एक ही अग्नि है, जीव शुद्धचेता ब्राह्मण हैं, पाँच इन्द्रियाँ समिधाएँ हैं। उनसे जो मोक्ष प्राप्त होता है, वह सात प्रकार का है। इस यज्ञ की दीक्षा का फल अवश्य होता है। गुण ही फल है। सात अतिथि ही फलों के भोक्ता हैं। वे महर्षिगण इस यज्ञ में आतिथ्य ग्रहण करते हैं और पूजा स्वीकार करते ही उनका लय हो जाता है। तत्पश्चात वह ब्रह्मरूप वन विलक्षण रूप से प्रकाशित होता है। उसमें प्रज्ञारूपी वृक्ष शोभा पाते हैं, मोक्षरूपी फल लगते हैं और शान्तिमयी छाया फैली रहती है। ज्ञान वहाँ का आश्रय स्थान और तृप्ति जल है। उस वन के भीतर आत्मारूपी सूर्य का प्रकाश छाया रहता है। जो श्रेष्ठ पुरुष उस वन का आश्रय लेते हैं, उन्हें फिर कभी भय नहीं होता। वह वन ऊपर नीचे तथा इधर-उधर सब ओर व्याप्त है। उसका कहीं भी अन्त नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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