महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-16

द्विषष्टितम (62) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


सब दानों से बढ़कर भूमिदानका महत्‍व तथा उसी के विषय में इन्‍द्र और बृहस्‍पति का संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यह देना चाहिये, वह देना चाहिये, ऐसा कहकर यह श्रुति बड़े आदर के साथ दान का विधान करती है और शास्त्रों में राजाओं के लिये बहुत कुछ दान करने के लिये बात कही गयी है; परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि सब दानों में सर्वोत्तम दान कौन-सा है?

भीष्म जी ने कहा- बेटा! सब दानों से बढ़कर पृथ्वीदान बताया गया है। पृथ्वी अचल और अक्षय है। वह इस लोक में समस्त उत्तम भोगों को देने वाली है। वस्त्र, रत्न, पशु और धान-जौ आदि नाना प्रकार के अन्न- इन सब को देने वाली पृथ्वी ही है; अतः पृथ्वी का दान करने वाला मनुष्य सदा समस्त प्राणियों में सबसे अधिक अभ्युदयशील होता है।

युधिष्ठिर! इस जगत में जब तक पृथ्वी की आयु है, तब तक भूमिदान करने बाला मुनष्य समृद्धिशाली रहकर सुख भोगता है। अतः यहाँ भूमिदान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। हमने सुना है कि जिन लोगों ने थोड़ी-सी भी पृथ्वी दान की है, वे सब लोग भूमिदान का ही पूर्ण फल पाकर उसका उपभोग करते हैं। मनुष्य इहलोक और परलोक में अपने कर्म के अनुसार ही जीवन-निर्वाह करते हैं। भूमि ऐश्वर्यस्वरूपा महादेवी है। वह दाता को अपना प्रिय बना लेती है। नृपश्रेष्ठ! जो इस अक्षय भूमि का दान करता है, वह दूसरे जन्म में मनुष्य होकर पृथ्वी का स्वामी होता है। धर्मशास्‍त्रों का सिद्वान्त है कि जैसा दान किया जाता है, वैसा ही भोग मिलता है। संग्राम में शरीर का त्याग करना तथा इस पृथ्वी का दान करना- ये दोनों ही कार्य क्षत्रियों को उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। दान में दी हुई पृथ्वी दाता को पवित्र कर देती है- यह हमने सुना है। कितना ही बड़ा पापाचारी, ब्रह्महत्यारा और असत्यवादी क्यों न हो, दान में दी हुई पृथ्वी ही दाता के पाप को धो बहा देती है और वही उसे सर्वथा पापमुक्त कर देती है।

श्रेष्ठ पुरुष पापाचारी राजाओं से भी पृथ्वी का दान तो ले लेते हैं, किंतु और किसी वस्तु का दान नहीं लेना चाहते। पृथ्वी वैसी ही पावन वस्तु है, जैसी माता। इस पृथ्वी देवी का सनातन गोपनीय नाम ‘प्रियदत्ता’ है। इसका दान अथवा ग्रहण दोनों ही दाता और प्रतिग्रहिता को प्रिय है; इसलिये इसका यह प्रथम नाम सबको प्रिय है। जो पृथ्वीपति विद्वान ब्राह्मणों को इस पृथ्वी का दान देता है, वह राजा इस दान के प्रभाव से पुनः राज्य प्राप्त करता है। भूमण्डल में यह पृथ्वीदान सबको प्रिय है। वह पुनर्जन्म पाकर राजा के समान ही होता है, इसमें संशय नहीं है। अतः राजा को चाहिये कि वह पृथ्वी पर अधिकार पाते ही उसमें से कुछ ब्राह्मणों को दान करे।

जो जिस भूमि का स्वामी नहीं है, उसे उस पर किसी तरह अधिकार नहीं करना चाहिये तथा अयोग्य पात्र को भूमिदान नहीं ग्रहण करना चाहिये। जिस भूमि को दान में दे दिया गया हो, उसे अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिये। दूसरे जो भी लोग भावी जन्म में भूमि पाने की इच्छा करें, उन्हें इस जन्म में इसी तरह भूमिदान करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। जो छल-वल से श्रेष्ठ पुरुष की भूमि का अपहरण कर लेता है, उसे भूमि की प्राप्ति नहीं होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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