महाभारत आदिपर्व अध्याय 57 श्लोक 1-24

सप्तपंचाशत्तम (57) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद

सर्प यज्ञ में दग्‍ध हुए प्रधान–प्रधान सर्पों के नाम

शौनक जी ने पूछा- सूतनन्‍दन! इस सर्पसत्र की धधकती हुई आग में जो-जो सर्प गिरे थे, उन सबके नाम मैं सुनना चाहता हूँ। उग्रश्रवा जी ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! इस यज्ञ में सहस्रों, लाखों एवं अरबों सर्प गिरे थे, उनकी संख्‍या बहुत होने के कारण गणना नहीं की जी सकती। परंतु सर्पयज्ञ की अग्नि में जिन प्रधान-प्रधान नागों की आहुति दी गयी थी, उन सबके नाम अपनी स्‍मृति के अनुसार बता रहा हूँ, सुनो। पहले वासुकि के कुल में उत्‍पन्न हुए मुख्‍य-मुख्‍य सर्पों के नाम सुनो- वे सब-के-सब नीले, लाल, सफेद और भयानक थे। उनके शरीर विशाल और विष अत्‍यन्‍त भयंकर थे। वे बेचारे सर्प माता के शाप से पीड़ित हो विवशतापूर्वक सर्पयज्ञ की आग में होम दिये गये थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- कोटिश, मानस, पूर्ण, शल, पाल, हलीमक, पिच्छल, कौणप, चक्र, कालवेग, प्रकालन, हिरण्‍यबाहु, शरण, कक्षक और कालदन्‍तक। ये वासुकिवंशज नाग थे, जिन्‍हें अग्नि में प्रवेश करना पड़ा। विप्रवर! ऐसे ही दूसरे बहुत से महाबली और भयंकर सर्प थे, जो उसी कुल में उत्‍पन्न हुए थे। वे सब-के-सब सर्पसत्र की प्रज्वलित अग्नि में आहुति बन गये थे।

अब तक्षक के कुल में उत्‍पन्न नागों का वर्णन करूँगा, उनके नाम सुनो- पुच्‍छाण्‍डक, मण्डलक, पिण्‍डसेत्ता, रभेणक, उच्छिख, शरभ, भंग, बिल्‍बतेजा, विरोहण, शिलि, शलकर, मूक, सुकुमार, प्रवेपन, मुदगर, शिशुरोमा, सुरोमा और महाहनु- ये तक्षक वंशज नाग थे, जो सर्पसत्र की आग में समा गये। पाराबत, पारिजात, पाण्डर, हरिण, कृश, विहंग, शरभ, मेद, प्रमोद और संहतापन- ये ऐरावत के कुल से आकर आग में आहुति बन गये थे। द्विजश्रेष्ठ! अब तुम मुझसे कौरव्‍य-कुल में उत्‍पन्न हुए नागों के नाम सुनो। एरक, कुण्डल, वेणी, वेणीस्कन्ध, कुमारक, बाहुक, श्रृंगवेर, धूर्तक, प्रातर और आतक- ये कौरव्‍य-कुल के नाग यज्ञाग्नि में जल मरे थे। ब्रह्मन्! अब धृतराष्ट्र-कुल में उत्‍पन्न नागों के नामों का मुझसे यथावत् वर्णन सुनो। वे वायु के समान वेगशाली और अत्‍यन्‍त विषैले थे। उनके नाम इस प्रकार है- शंङकुकर्ण, पिटरक, कुठार, मुखसेचक, पूर्णांगद पूर्णमुख, प्रहास, शकुनि, दरि, अमाहट, कामठक, सुपेण, मानस, अव्‍यय, भैरव, मुण्डवेदांग, पिशंग, उद्रपारक, ऋषभ, वेगवान् नाग, पिण्डारक, महाहनु, रक्तांग, सर्वसारंग, समृद्ध, पटवासक, बराहक, वीरणक, सुचित्र, चित्रवेगिक, पराशर, तरुणक, मणिस्कन्ध, और आरुणि- (ये सभी धृतराष्ट्रवंशी नाग सर्पसत्र की आग में जलकर भस्‍म हो गये थे)।

ब्रह्मन! इस प्रकार मैंने अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले मुख्‍य-मुख्‍य नागों का वर्णन किया है। उनकी संख्‍या बहुत है, इसलिये सबका नामोल्‍लेख नहीं किया गया है। इन सबकी संतानों की और संतानों की संतति की, जो प्रज्‍वलित अग्नि में जल मरी थीं, गणना नहीं की जा सकती। किसी के तीन सिर थे तो किसी के सात तथा कितने ही दस-दस सिर वाले नाग थे। उनके विष प्रलयाग्नि के समान दाहक थे वे नाग बड़े ही भयंकर थे। उनके शरीर विशाल और महान थे वे ऊँचे तो ऐसे थे, मानों पर्वत के शिखर हों। ऐसे नाग लाखों की संख्‍या में यज्ञाग्नि की आहुति बन गये। उनकी लम्‍बाई-चौड़ाई एक-एक, दो-दो योजन तक की थी। वे इच्‍छानुसार रुप धारण करने वाले तथा इच्‍छानुरुप बल-पराक्रम से सम्‍पन्न थे। वे सब-के-सब धधकती हुई आग के समान भयंकर विष से भरे थे। माता के शापरुपी ब्रह्मदण्‍ड से पीड़ित होने के कारण वे उस महासत्र में जलकर भस्‍म हो गये।

इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में सर्पनामकथन-विषयक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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