एकोनत्रिंश (29) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को नाना प्रकार के अन्न-पान ग्रहण करने की आज्ञा दे दी थी; अतः वे वहाँ विश्राम पाकर सभी तरह के उत्तम भोजन करते थे। वे सेनाओं तथा अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ वहाँ एक मास तक वन में विहार करते रहे। अनघ! इसी बीच में जैसा कि मैनें तुम्हें बताया है, वहाँ व्यास जी का आगमन हुआ। राजन्! राजा धृतराष्ट्र के समीप व्यास जी के पीछे बैठे हुए उन सब लोगों में जब उपर्युक्त बातें होती रहीं, उसी समय वहाँ दूसरे-दूसरे मुनि भी आये। भारत! उनमें नारद, पर्वत, महातपस्वी देवल, विश्वावसु, तुम्बरू तथा चित्रसेन भी थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से महातपस्वी कुरुराज युधिष्ठिर ने उन सब की भी यथोचित पूजा की। युधिष्ठिर से पूजा ग्रहण करके वे सब-के-सब मोरपंख के बने हुए पवित्र एवं श्रेष्ठ आसनों पर विराजमान हुए। कुरुश्रेष्ठ! उन सब के बैठ जाने पर पांडवों से घिरे हुए परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र बैठे। गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा तथा दूसरी स्त्रियाँ अन्य स्त्रियों के साथ आस-पास ही एक साथ बैठ गयीं। नरेश्वर! उस समय उन लोगों में धर्म से सम्बन्ध रखने वाली दिव्य कथाएँ होने लगीं। प्राचीन ऋषियों तथा देवताओं और असुरों से सम्बन्ध रखने वाली चर्चाएँ छिड़ गयीं। बातचीत के अन्त में सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं और वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी महर्षि व्यास जी ने प्रसन्न होकर प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र से पुन: वही बात कही। "राजेन्द्र! तुम्हारे हृदय में जो कहने की इच्छा हो रही है, उसे मैं जानता हूँ। तुम निरन्तर अपने मरे हुए पुत्रों के शोक से जलते रहते हो। महाराजा! गांधारी, कुन्ती और द्रौपदी के हृदय में भी जो दुःख सदा बना रहता है, वह भी मुझे ज्ञात है। श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु के मारे जाने का जो दुःसह दुःख हृदय में धारण करती है, वह भी मुझसे अज्ञात नहीं है। कौरवनन्दन! नरेश्वर! वास्तव में तुम सब लोगों का यह समागम सुनकर तुम्हारे मानसिक संदेहों का निवारण करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। ये देवता, गन्धर्व और महर्षि सब लोग आज मेरी चिरसंचित तपस्या का प्रभाव देखें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज