महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-26

प्रथम (1) अध्‍याय: स्‍वर्गारोहण पर्व

महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-38

महाभारत: स्‍वर्गारोहण पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद


स्वर्ग में नारद और युधिष्ठिर की बातचीत

अर्न्तयामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके 'जय' (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।

जनमेजय ने पूछा- मुने! मेरे पूर्वपितामह पांडव और धृतराष्ट्र के पुत्र स्वर्गलोक में पहुँचकर किन-किन स्थानों को प्राप्‍त हुए? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। आप अद्भुतकर्मा महर्षि व्यास की आज्ञा पाकर सर्वज्ञ हो गये हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।

वैशम्पायन जी ने कहा- जनमेजय! जहाँ तीनों लोकों का अन्तर्भाव है, उस स्वर्ग में पहुँचकर तुम्हारे पूर्व पितामह युधिष्ठिर आदि ने जो कुछ किया, वह बताता जाता है, सुनो।

स्वर्गलोक में पहुँचकर धर्मराज युधिष्ठिर ने देखा कि दुर्योधन स्वर्गीय शोभा से सम्पन्न हो तेजस्वी देवताओं तथा पुण्यकर्मा साध्यगणों के साथ एक दिव्य सिंहासन पर बैठकर वीरोचित शोभा से संयुक्त हो सूर्य के समान देदीप्‍यमान हो रहा है। दुर्योधन को ऐसी अवस्था में देख उसे मिली हुई शोभा और सम्पत्ति का अवलोकन कर राजा युधिष्ठिर अमर्ष से भर गये और सहसा दूसरी ओर लौट पड़े। फिर उच्‍च स्वर से उन सब लोगों से बोले- "देवताओं! जिसके कारण हमने अपने समस्त सुहृदों और बन्धुओं का हठपूर्वक युद्ध में संहार कर डाला और सारी पृथ्वी उजाड़ डाली, जिसने पहले हम लोगों को महान वन में भारी क्लेश पहुँचाया था तथा जो निर्दोष अंगों वाली हमारी धर्मपरायणा पत्नी पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को भरी सभा में गुरुजनों के समीप घसीट लाया था, उस लोभी और अदूरदर्शी दुर्योधन के साथ रहकर मैं इन पुण्यलोकों को पाने की इच्‍छा नहीं रखता। देवगण! मैं दुर्योधन को देखना भी नहीं चाहता; मेरी तो वहीं जाने की इच्‍छा है, जहाँ मेरे भाई हैं।"

यह सुनकर नारद जी उनसे हँसते हुए-से बोले- "नहीं-नहीं ऐसा न कहो; स्वर्ग में निवास करने पर पहले का वैर-विरोध शान्त हो जाता है। महाबाहु युधि‍ष्ठिर! तुम्हें राजा दुर्योधन के प्रति किसी तरह ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिये। मेरी इस बात को ध्यान देकर सुनो। ये राजा दुर्योधन देवताओं सहित उन श्रेष्ठ नरेशों द्वारा भी पूजित एवं सम्मानित होते हैं, जो कि ये चिरकाल से स्वर्ग लोक में निवास करते हैं। इन्होंने युद्ध में अपने शरीर की आहुति देकर वीरों की गति पायी है। जिन्होंने युद्ध में देवतुल्‍य तेजस्वी तुम समस्त भाइयों का डटकर सामना किया है, जो पृथ्वीपति दुर्योधन महान भय के समय भी निर्भय बने रहे, उन्होंने क्षत्रिय धर्म के अनुसार यह स्थान प्राप्‍त किया है। वत्स! इनके द्वारा जुए में जो अपराध हुआ है, उसे अब तुम्हें मन में नहीं लाना चाहिये। द्रौपदी को भी इनसे जो क्लेश प्राप्‍त हुआ है, उसे अब तुम्हें भुला देना चाहिये। तुम लोगों को अपने भाई-बन्धुओं से युद्ध में या अन्यत्र और भी जो कष्ट उठाने पड़े हैं, उन सबको यहाँ याद रखना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। अब तुम राजा दुर्योधन के साथ न्यायपूर्वक मिलो। नरेश्वर! यह स्वर्गलोक है, यहाँ पहले के वैर-विरोध नहीं रहते हैं'।"

नारद जी के ऐसा कहने पर बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों का पता पूछा और यह बात कही- "देवर्षे! जिसके कारण घोड़े, हाथी और मनुष्यों सहित सारी पृथ्वी नष्ट हो गयी, जिसके वैर का बदला लेने की इच्‍छा से हमें भी क्रोध की आग में जलना पड़ा, जो धर्म का नाम भी नहीं जानता था, जिसने जीवन भर भूमण्डल के समस्त सुहृदयों के साथ द्रोह ही किया है, उस पापी दुर्योधन को यदि ये सनातन वीरलोक प्राप्‍त हुए हैं तो जो वे वीर, महात्मा, महान व्रतधारी, सत्यप्रतिज्ञ विश्वविख्‍यात शूर और सत्यवादी मेरे भाई हैं, उन्हें इस समय कौन-से लोक प्राप्‍त हुए हैं? मैं उनको देखना चाहता हूँ। कुन्ती के सत्यप्रतिज्ञ पुत्र महात्मा कर्ण से भी मिलना चाहता हूँ। धृष्टद्युम्न, सात्यकि तथा धृष्टद्युम्न के पुत्रों को भी देखना चाहता हूँ। ब्रह्मन! नारद जी! जो भूपाल क्षत्रिय धर्म के अनुसार शस्त्रों द्वारा वध को प्राप्‍त हुए हैं, वे कहाँ हैं? मैं इन राजाओं को यहाँ नहीं देखता हूँ। मैं इन समस्त राजाओं से मिलना चाहता हूँ। विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु आदि पाञ्चाल राजकुमार शिखण्डी, द्रौपदी के सभी पुत्रों तथा दुर्धर्ष वीर अभिमन्यु को भी मैं देखना चाहता हूँ।"


इस प्रकार श्रीमहाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व में स्‍वर्ग में नारद और युधिष्ठिर का संवाद विषयक पहला अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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