त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम (243) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर बोले- तात! ये लोग भय से पीड़ित हो शरण लेने की इच्छा से हमारे पास आये हैं। इस समय कौरव भारी संकट में पड़ गये हैं। फिर तुम ऐसी कड़वी बात कैसे बोल रहे हो? भीमसेन! ज्ञाति अर्थात् भाई बन्धुओं में मतभेद और लड़ाई-झगडे़ होते ही रहते हैं। कभी-कभी उनमें वैर भी बंध जाते हैं; परंतु इससे कुल का धर्म यानि अपनापन नष्ट नहीं होता। जब कोई बाहर का मनुष्य उनके कुल पर आक्रमण करता है, तब श्रेष्ठ पुरुष उस बाहरी मनुष्य के द्वारा, होने वाले अपने कुल के तिरस्कार को नहीं सहन करते हैं। दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होने पर उसका सामना करने के लिये हम लोग एक सौ पांच भाई हैं। आपस में विरोध होने पर ही हम पांच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं। यह खोटी बुद्वि वाला गन्धर्व जानता है कि हम (पाण्डव) दीर्घकाल से यहाँ रह रहे हैं, तो भी इस प्रकार हमारा तिरस्कार करके इस चित्रसेन गन्धर्व ने यह अप्रिय कार्य किया है। शक्तिशाली भीम! गन्धर्व के द्वारा बलपूर्वक दुर्योधन के पकड़े जाने से और एक बाहरी पुरुष के द्वारा कुरुकुल की स्त्रियों का अपहरण होने से हमारे कुल का जो तिरस्कार हुआ है, वह कुल के लिये मृत्यु के तुल्य है। नरश्रेष्ठ वीरो! शरणागतों की रक्षा करने और कुल की लाज बचाने के लिेये तुम लोग शीघ्र उठो और युद्ध के लिये तैयार हो जाओ, विलम्ब न करो। वीर! अर्जुन, नकुल, सहदेव और तुम किसी से परास्त होने वाले नहीं हो। नरवीरो! गन्धर्वों द्वारा अपहृत होने वाले दुर्योधन को छुड़ा लाओ। नरसिंहो! कौरवों के ये सुनहरी ध्वजों वाले निर्मल रथ सामने खड़े हैं। इनमें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। इनके चनले पर भारी आवाज होती है। ये रथ सदा सुसज्जित रहते हैं। शास्त्रविद्या में निपुण इन्द्रसेन आदि सारथि इन पर बैठे हुए हैं। तुम लोग इन रथों पर आरूढ़ हो गन्धर्वों से युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ और सावधान होकर दुर्योधन को छुड़ाने का प्रयत्न करो। भीमसेन! जो कोई साधारण क्षत्रिय भी क्यों न हो, शरण लेने के लिये आये हुए मनुष्य की यथाशक्ति रक्षा करता है। फिर तुम जैसे वीर पुरुष शरणागत की रक्षा करें, इसके लिये तो कहना ही क्या है?' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार भीमसेन पहले के वैरका स्मरण करते हुए क्रोध से आंखें लाल करके फिर इस प्रकार बोले। भीमसेन बोले- 'वीरवर भैया युधिष्ठिर! आपको याद होगा, पहले इसी दुर्योधन ने लाक्षागृह में हम लोगों को जलाकर भस्म कर देने का घृणित विचार किया था; परन्तु दैव ने हमारी रक्षा की। भरतकुलभूषण प्रभो! इसी ने मेंरे भोजन मे तीव्र कालकूट विष मिला दिया और मुझे लतापाश से बांधकर गंगाजी में फेंक दिया था। कुन्तीनन्दन! जूए के समय इसने बड़े-बड़े पाप किये हैं। द्रौपदी का स्पर्श, उसके केशों को पकड़कर खींचना और भरी सभा में उसे नग्नी करने के लिये उसके वस्त्रों का अपहरण करना-ये सब दुर्योधन के कुकृत्य हैं। पहले के किये हुए पापों का फल आज दुर्योधन भोग रहा है। इस धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को पकड़कर दण्ड देने का काम तो हम लोगों को ही करना चाहिये था; परन्तु किसी दूसरे ने हमारे साथ मैत्री की इच्छा रखकर स्वयं ही वह कार्य पूरा कर दिया। राजन्! आप उदासीन न हों; गन्धर्व हम-लोगों का उपकारी ही है।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी समय चित्रसेन द्वारा अपहृत होता हुआ दुर्योधन अत्यन्त दु:ख से पीड़ित हो जोर-जोर से विलाप करने लगा। दुर्योधन बोला- पुरुवंश का यश बढ़ाने वाले समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महायशस्वी पुरुषसिंह महाबाहु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! मुझे गन्धर्व बलपूर्वक हरकर लिये जा रहे हैं। मेरी रक्षा करो। महाबाहो! यह शत्रु तुम्हारे भाई मुझ दुर्योधन को बांधे लिये जाता है। साथ ही ये सारे गन्धर्व दु:शासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुर्जय तथा हमारी रानियों को भी बन्दी बनाकर लिये जा रहे हैं। पुरुषोत्तम पाण्डवों! शीघ्र इनका पीछा करो और मेरे प्राण बचाओ। महाबाहु वृकोदर और महायशस्वी धनंजय! मेरी रक्षा करो। दोनो भाई नकुल और सहदेव भी अस्त्र-शस्त्र लिये मेरी रक्षा के लिये दौड़े आवें। पाण्डवों कुरुवंश के लिये यह बड़ा भारी अयश प्राप्त हो रहा है। तुम अपने पराक्रम से इन गन्धर्वों को जीतकर मार भगाओ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार आर्त वाणी में विलाप करते हुए दुर्योधन का करुण क्रन्दन सुनकर माननीय युधिष्ठिर दया से द्रवित हो गये। उन्होंने पुन: भीमसेन से कहा- ‘इस जगत् में कौन ऐसा श्रेष्ठ पुरुष है, जो हाथ जोड़कर शरण में आये हुए शत्रु को भी देखकर और उसके द्वारा की हुई ‘दौड़ो बचाओ’ की पुकार सुनकर उसकी रक्षा के लिये दौड़ नहीं पड़ेगा?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज