महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-17

षष्टितम (60) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वसुदेव जी के पूछने पर श्रीकृष्ण का उन्हें महाभारत-युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप से सुनाना

वसुदेव जी ने पूछा- वृष्णिनन्दन! मैं प्रतिदिन बातचीत के प्रसंग में लोगों के मुँह से सुनता आ रहा हूँ कि महाभारत युद्ध बड़ा अद्भुत हुआ था। इसलिये पूछता हूँ कि कौरवों और पाण्डवों में किस तरह युद्ध हुआ? महाबाहो! तुम तो उस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी हो और उसके स्वरूप को भी भली-भाँति जानते हो। अत: अनघ! मुझसे उस युद्ध का यथार्थ वर्णन करो। महात्मा पाण्डवों का भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और शल्य आदि के साथ जो परम उत्तम युद्ध हुआ था, वह किस तरह हुआ? दूसरे-दूसरे देशों में निवास करने वाले, भाँति-भाँति की वेशभूषा और आकृति वाले जो अस्त्र-विद्या में निपुण बहुसंख्यक क्षत्रिय वीर थे, उन्होंने भी किस प्रकार युद्ध किया था?

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! माता के निकट पिता के इस प्रकार पूछने पर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण कौरव वीरों के संग्राम में मारे जाने का वह प्रसंग यथावत रूप से सुनाने लगे। श्रीकृष्ण ने कहा- पिता जी! महाभारत युद्ध में काम में आने वाले मनस्वी क्षत्रिय वीरों के कर्म बड़े अद्भुत हैं। वे इतने अधिक हैं कि यदि विस्तार के साथ उनका वर्णन किया जाय तो सौ वर्षों में भी उनकी समाप्ति नहीं हो सकती। अत: देवताओं के समान तेजस्वी तात! मैं मुख्य-मुख्य घटक घटनाओं को ही संक्षेप से सुना रहा हूँ, आप उन भूपतियों के कर्म तथा यथावत रूप से सुनिये। जैसे इन्द्र देवताओं की सेना के स्वामी हैं, उसी प्रकार कुरुकुलतिलक भीष्म भी श्रेष्ठ कौरववीरों के सेनापति बनाये गये थे। वे ग्यारह अक्षौहिणी सेना के संरक्षक थे। पाण्डवों के सेनानायक शिखण्डी थे, जो सात अक्षौहिणी सेनाओं का संचालन करते थे।

बुद्धिमान शिखण्डी श्रीमान सव्यसाची अर्जुन के द्वारा सुरक्षित थे। उन महामनस्वी कौरवों और पाण्डवोंं में दस दिनों तक महान रोमांचकारी युद्ध हुआ। फिर दसवें दिन शिखण्डी ने महासमर में जूझते हुए गंगानन्दन भीष्म को गाण्डीव धारी अर्जुन की सहायता से बहुसंख्यक बाणों द्वारा बहुत घायल कर दिया। तत्पश्चात भीष्म जी बाण शय्या पर पड़ गये। जब तक दक्षिणायन रहा है, वे मुनिव्रत का पालन करते हुए शरशय्या पर सोते रहे हैं। दक्षिणायन समाप्त होकर उत्तरायण के आने पर ही उन्होंने मृत्यु स्वीकार की है।

तदनन्तर अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण कौरवपक्ष के सेनापति बनाये गये। वे कौरवराज की सेना के प्रमुख वीर थे, मानो दैत्यराज बलि की सेना के प्रधान संरक्षक शुक्राचार्य हों। उस समय मरने से बची हुई नौ अक्षौहिणी सेना उन्हें सब ओर से घेर कर खड़ी थी। वे स्वयं तो युद्ध का हौसला रखते ही थे, कृपाचार्य और कर्ण भी सदा उनकी रक्षा करते रहते थे। इधर महान अस्त्रवेत्ता धृष्टद्युम्न पाण्डव सेना के अधिनायक हुए। जैसे मित्र वरुण की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार भीमसेन मेधावी धृष्टद्युम्न की रक्षा करने लगे। पाण्डवसेना से घिरे हुए महामनस्वी वीर धृष्टद्युम्न ने द्रोण के द्वारा अपने पिता के अपमान का स्मरण करके उन्हें मार डालने के लिये युद्ध में बड़ा भारी पराक्रम दिखाया। धृष्टद्युम्न और द्रोण के उस भीषण संग्राम में नाना दिशाओं से आये हुए भूपाल अधिक संख्या में मारे गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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