महाभारत वन पर्व अध्याय 266 श्लोक 1-9

षट्षष्‍टयधिकद्विशततम (266) अध्‍याय: वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व )

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महाभारत: वन पर्व: षट्षष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी का कोटिकास्‍य को उत्‍तर

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! शिबि देश के प्रमुख वीर कोटिकास्‍य के इस प्रकार पूछने पर राजकुमारी द्रौपदी कदम्‍ब की वह डाली छोड़कर अपनी रेशमी ओढ़नी को सँभालती हुई संकोचपूर्वक उसकी ओर देखकर बोली- ‘राजकुमार! मैं बुद्धि से सोच-विचारकर भलीभाँति समझती हूँ कि मुझ-जैसी पतिपरायणा स्‍त्री को तुम-जैसे परपुरुष से वार्तालाप नहीं करना चाहिये; परंतु यहाँ कोई दूसरा ऐसा पुरुष अथवा स्‍त्री नहीं है, जो तुम्‍हारी बात का उत्‍तर दे सके। मैं इस समय यहाँ अकेली ही हूँ। इसलिये विवश होकर तुमसे बोलना पड़ रहा है।

भद्रपुरुष! मेरी इस बात पर ध्‍यान दो। मैं अपने धर्म के पालन में तत्‍पर रहने वाली हूँ। इस समय इस वन में मैं अकेली हूँ और तुम भी अकेले पुरुष हो, ऐसी दशा में मैं तुम्‍हारे साथ कैसे वार्तालाप कर सकती हूँ। परंतु मैं तुम्‍हें पहचानती हूँ, तुम राजा सुरथ के पुत्र हो, जिसे लोग कोटिकास्‍य के नाम से जानते हैं। शैब्‍य! इसलिये मैं तुम्‍हें अपने बन्‍धुजनों त‍था विश्‍वविख्‍यात वंश का परिचय देती हूँ।

शिबि देश के राजकुमार! मैं राजा द्रुपद की पुत्री हूँ। मनुष्‍य मुझे कृष्णा के नाम से जानते हैं। मैंने पाँचों पाण्‍डवों का पतिरूप में वरण किया है, जो खाण्‍डवप्रस्‍थ में रहते थे। उनका नाम तुमने अवश्‍य सुना होगा। युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीपुत्र नरवीर नकुल और सहदेव -ये ही मेरे पति हैं। वे सब-के-सब मुझे यहाँ रखकर हिंसक पशुओं को मारने के लिये अलग-अलग बँटकर चारों दिशाओं में गये हैं। स्‍वयं राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशा में गये हैं, भीमसेन दक्षिण दिशा में, अर्जुन पश्चिम दिशा में और नकुल-सहदेव उत्‍तर दिशा में गये हैं। मैं समझती हूँ, अब उन महारथियों के सब ओर से यहाँ पहुँचने का समय हो गया है। अब तुम लोग अपनी सवारियों से उतरो और घोड़ों को खोलकर विश्राम करो। मेरे पतियों का आदर-सत्‍कार ग्रहण करके अपने अभीष्‍ट देश को जाना। महात्‍मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर अतिथियों के बड़े प्रेमी हैं। वे तुम लोगों को देखकर बहुत प्रसन्‍न होंगे’।

शिबि देश के राजकुमार कोटिकास्‍य से ऐसा कहकर वह चन्‍द्रमुखी द्रौपदी अपनी पर्णशाला के भीतर चली गयी। ‘ये लोग हमारे अतिथि हैं’, ऐसा सोचकर उसे उन पर विश्‍वास हो गया था। अत: वह प्रसन्नतापूर्वक उनके आतिथ्‍य की व्‍यवस्‍था में लग गयी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में द्रौपदीवाक्‍यविषयक दौ सौ छाछठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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