महाभारत आदि पर्व अध्याय 202 श्लोक 1-19

द्वयधिकद्विशततम (202) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

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महाभारत: आदि पर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


भीष्‍म की दुर्योधन से पाण्‍डवों को आधा राज्‍य देने की सलाह

भीष्‍म जी बोले- मुझे पाण्‍डवों के साथ विरोध या युद्ध किसी प्रकार भी पसंद नहीं है। मेरे लिये जैसे धृतराष्ट्र हैं, वैसे ही पाण्डु- इसमें संशय नहीं है। धृतराष्‍ट्र! जैसे गान्धारी के पुत्र मेरे अपने हैं, उसी प्रकार कुन्‍ती के पुत्र भी हैं; इसीलिये जैसे मुझे पाण्‍डवों की रक्षा करनी चाहिये, वैसे तुम्‍हें भी। भूपाल! मेरे और तुम्‍हारे लिये जैसे पाण्‍डवों की रक्षा आवश्‍यक है, वैसे ही दुर्योधन तथा अन्‍य समस्‍त कौरवों को भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। ऐसी दशा में पाण्‍डवों के साथ लड़ाई-झगड़ा पसंद नहीं करता। उन वीरों के साथ संधि करके उन्‍हें आधा राज्‍य दे दिया जाय। (दुर्योधन की ही भाँति) उन कुरुश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों के भी बाप-दादों का यह राज्‍य है। तात दुर्योधन! जैसे तुम इस राज्‍य को अपनी पैतृक सम्‍पत्ति के रुप में देखते हो, उसी प्रकार पाण्‍डव भी देखते हैं। यदि यशस्‍वी पाण्‍डव इस राज्‍य को नहीं पा सकते तो तुम्‍हें अथवा भरतवंशी के किसी अन्‍य पुरुष को भी वह कैसे प्राप्‍त हो सकता है?

भरतश्रेष्‍ठ! तुमने अधर्मपूर्वक इस राज्‍य को हथिया लिया है; परंतु मेरा विचार यह है कि तुमसे पहले ही वे भी इस राज्‍य को पा चुके थे। पुरुषसिंह! प्रेमपूर्वक ही उन्‍हें आधा राज्‍य दे दो। इसी में सब लोगों का हित है। यदि इस‍के विपरीत कुछ किया जायगा तो हमारी भलाई नहीं हो सकती और तुम्‍हें भी पूरा-पूरा अपयश मिलेगा- इसमें संशय नहीं है। अत: अपनी कीर्ति की रक्षा करो, कीर्ति ही श्रेष्‍ठ बल है; जिसकी कीर्ति‍ नष्‍ट हो जाती है, उस मनुष्‍य का जीवन निष्‍फल माना गया है। गान्‍धारीनन्‍दन! कुरुश्रेष्‍ठ! मनुष्‍य की कीर्ति जब तक नष्‍ट नहीं होती, तभी तक वह जीवित है; जिसकी कीर्ति नष्ट हो गयी, उसका तो जीवन ही नष्‍ट हो जाता है। महाबाहो! कुरुकुल के लिये उचित इस उत्‍तम धर्म का पालन करो। अपने पूर्वजों के अनुरुप कार्य करते रहो। सौभाग्‍य की बात है कि कुन्‍ती के पुत्र जीवित है; यह भी सौभाग्‍य की बात है कि कुन्‍ती भी मरी नहीं है और सबसे बड़े सौभाग्‍य का विषय यह है कि पापी पुरोचन अपने (बुरे) इरादे में सफल न होकर स्‍वयं नष्‍ट हो गया।

गान्‍धारीकुमार! जब से मैंने सुना कि कुन्‍ती के पुत्र लाक्षागृह की आग में जल गये और कुन्‍ती भी उसी अवस्‍था को प्राप्‍त हुई, तभी से मैं (लज्‍जा के मारे) जगत् के किसी भी प्राणी की ओर आंख उठाकर देख नहीं सकता था। नरश्रेष्‍ठ! लोग इस कार्य के लिये पुरोचन को उतना दोषी नहीं मानते, जितना तुम्‍हें दोषी समझते हैं। अत: महाराज! पाण्‍डवों का यह जीवित रहना और उनका दर्शन होना वास्‍तव में तुम्‍हारे ऊपर लगे हुए कलंक का नाश करने वाला है, ऐसा मानना चाहिये। कुरुनन्‍दन! पाण्‍डव वीरों के जीते-जी उनका पैतृक अंश साक्षात् वज्रधारी इन्‍द्र भी नहीं ले सकते। वे सब धर्म में स्थित हैं; उन सबका एक चित्‍त- एक विचार है। इस राज्‍य पर तुम्‍हारा और उनका समान स्‍वत्‍व है, तो भी उनके साथ विशेष अधर्मपूर्ण बर्ताव करके उन्‍हें यहाँ से हटाया गया है। यदि तुम्‍हें धर्म के अनुकुल चलना है, यदि मेरा प्रिय करना है और यदि (संसार में) भलाई करनी है, तो उन्‍हें आधा राज्‍य दे दो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमन राज्‍यलम्‍भपर्व में भीष्‍मवाक्‍य-विषयक दो सौ दोवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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