महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-1

द्वाविंश (22) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


जरासंध और श्रीकृष्ण का संवाद तथा जरासंध की युद्ध के लिये तैयारी एवं जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर होने के कारण का वर्णन

जरासंध बोला- ब्राह्मणो! मुझे याद नहीं आता कि कब मैंने आप लोगों के साथ वैर किया है? बहुत सोचने पर भी मुझे आपके प्रति अपने द्वारा किया हुआ अपराध नहीं दिखायी देता। विप्रगण! जब मुझ से अपराध ही नहीं हुआ है, तब मुझ निरपराध को आप लोग शत्रु कैसे मान रहे हैं? यह बताइये। क्या यही साधु पुरुषों का बर्ताव है? किसी के धर्म (और अर्थ) में बाधा डालने से अवश्य ही मन को बड़ा संताप होता है। जो धर्मज्ञ महारथी क्षत्रिय लोक में धर्म के विपरीत आचरण करता हुआ किसी निरपराध व्यक्ति पर दूसरों के धन और धर्म के नाश का दोष लगाता है, वह कष्टमयी गति को प्राप्त होता है और अपने को कल्याण से भी वंचित कर लेता है; इस में संशय नहीं है। सत्कर्म करने वाले क्षत्रियों के लिये तीनों लोकों में क्षत्रिय धर्म ही श्रेष्ठ है। धर्मज्ञ पुरुष क्षत्रिय के लिये अन्य धर्म की प्रशंसा नहीं करते। मैं अपने मन को वश में रखकर सदा स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) में स्थित रहता हूँ। प्रजाओं का भी कोई अपराध नहीं करता, ऐसी दशा में भी आप लोग प्रमाद से ही मुझे शत्रु या अपराधी बता रहे हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा- महाबाहो! समूचे कुल में कोई एक ही पुरुष कुल का भार सँभालता है। उस कुल के सभी लोगों की रक्षा आदि का कार्य सम्पन्न करता है। जो वैसे महापुरुष हैं, उन्हीं की आज्ञा से हम लोग आज तुम्हें दण्ड देने को उद्यत हुए हैं। राजन्! तुम ने भूलोक निवासी क्षत्रियों को कैद कर लिया है। ऐसे क्रूर अपराध का आयोजन करके भी तुम अपने को निरपराध कैसे मानते हो? नृपश्रेष्ठ! एक राजा दूसरे श्रेष्ठ राजाओें की हत्या कैसे कर सकता है? तुम राजाओं को कैद करके उन्हें रुद्र देवता की भेंट चढ़ाना चाहते हो? बृहद्रथकुमार! तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह पाप हम सब लोगों पर लागू होगा; क्योंकि हम धर्म की रक्षा करने में समर्थ और धर्म का पालन करने वाले हैं। किसी देवता की पूजा के लिये मनुष्यों का बध कभी नहीं देखा गया। फिर तुम कल्याणकारी देवता भगवान् शिव की पूजा मनुष्यों की हिंसा द्वारा कैसे करना चाहते हो? जरासंध! तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है, तुम भी उसी वर्ण के हो, जिस वर्ण के वे राजा लोग हैं। क्या तुम अपने ही वर्ण के लोगों को पशुनाम देकर उनकी हत्या करोगे? तुम्हारे जैसा क्रूर दूसरा कौन है? जो जिस-जिस अवस्था में जो-जो कर्म करता है, वह उसी-उसी अवस्था में उसके फल को प्राप्त करता है। तुम अपने ही जाति-भाइयों के हत्यारे हो और हम लोग संकट में पड़े हुए दीन-दुखियों की रक्षा करने वाले हैं; अतः सजातीय बन्धुओं की वृद्धि के उद्देश्य से हम तुम्हारा वध करने के लिये यहाँ आये हैं। राजन्! तुम जो यह मान बैठे हो कि इस जगत् के क्षत्रियों में मेरे समान दूसरा कोई नहीं है, यह तुम्हारी बुद्धि का बहुत बड़ा भ्रम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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