महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 246 श्लोक 1-15

षट्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (246) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


परमात्‍मा की श्रेष्‍ठता, उसके दर्शन का उपाय तथा इस ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय   व्‍यास जी कहते हैं – बेटा! देह, इन्द्रिय और मन आदि जो प्रकृति के विकार है, वे क्षेत्रज्ञ (आत्‍मा) के ही आधार पर स्थित रहते हैं, वे जड होने के कारण क्षेत्रज्ञ को नहीं जानते; परंतु क्षेत्रज्ञ उन सबको जानता है। जैसे चतुर सारथि अपने वश में किये हुए बलवान् और उत्तम घोड़ों से अच्‍छी तरह काम लेता है, उसी प्रकार यहाँ क्षेत्रज्ञ भी अपने वश में किये हुए मनसहित इन्द्रियों के द्वारा सम्‍पूर्ण कार्य सिद्ध करता है। इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय बलवान् है, विषयों से मन बलवान् है, मन से बुद्धि बलवान् है और बुद्धि से जीवात्‍मा बलवान् है। जीवात्‍मा से बलवान् है अव्‍यक्त (मूल प्रकृति) और अव्‍यक्त से बलवान् और श्रेष्‍ठ है अमृतस्‍वरूप परमात्‍मा। उस परमात्‍मा से बढ़कर श्रेष्‍ठ कुछ भी नहीं है। वही श्रेष्‍ठता की चरम सीमा और परमगति है।

इस प्रकार सम्‍पूर्ण प्राणियों के भीतर उनकी हृदय गुफा में छिपा हुआ वह परमात्‍मा इन्द्रियों द्वारा प्रकाश में नहीं आता। सूक्ष्‍मदर्शी ज्ञानी महात्‍मा ही अपनी सूक्ष्‍म एवं श्रेष्‍ठ बुद्धि द्वारा उसका दर्शन करते हैं ।।५।। योगी बुद्धि के द्वारा मनसहित इन्द्रियों और उनके विषयों को अन्‍तरात्‍मा में लीन करके नाना प्रकार के चिन्‍तनीय विषय का चिन्‍तनन करता हुआ जब विवेक द्वारा विशुद्ध किये हुए मन को ध्‍यान के द्वारा सब ओर से पूर्णतया उपरत करके अपने को कुछ भी करने में असमर्थ बना जाता है, तब उसका मन अविचल परम शान्ति सम्‍पन्‍न हो जाता है और वह अमृतस्‍वरूप परमात्‍मा को प्राप्‍त हो जाता है। जिसका मन सम्‍पूर्ण इन्द्रियों के वश में होता है, वह मनुष्‍य विवेक शक्ति को खो देता है और अपने को काम आदि शत्रुओं के हाथों में सौंपकर मृत्‍यु का कष्‍ट भोगता है। अत: सब प्रकार के संकल्‍पों का नाश करके चित्त को सूक्ष्‍म बुद्धि में लीन करे । इस प्रकार बुद्धि में चित्त का लय करके वह काल पर विजय पा जाता है। चित्त की पूर्ण शुद्धि से सम्‍पन्‍न हुआ यत्‍नशील योगी इस जगत् में शुभ और अशुभ को त्‍याग देता है और प्रसन्‍नचित्त एवं आत्‍मनिष्‍ठ होकर अक्षय का सुख का उपभोग करता है। मनुष्‍य नींद के समय जैसे सुख से सोता है- सुषुप्ति के सुख का अनुभव करता है, अथवा जैसे वायु रहित स्‍थान में जलता हुआ दीपक कम्पित नहीं होता, एक तार जला करता है, उसी प्रकार मन कभी चंचल न हो, यही उसके प्रसाद का अर्थात् परम शुद्धि का लक्षण है। जो मिताहारी और शुद्धचित्त होकर रात के पहले और पिछले पहरों में उपर्युक्‍त प्रकार के आत्‍मा को परमात्‍मा के ध्‍यान मे लगाता है, वही अपने अन्‍त:करण में परमात्‍मा का दर्शन करता है। बेटा! मैने जो यह उपदेश दिया है, यह परमात्‍मा का ज्ञान कराने वाला शास्‍त्र है। यही सम्‍पूर्ण वेदों का रहस्‍य है। केवल अनुमान या आगम से इसका ज्ञान नहीं होता, अनुभव से ही यह ठीक-ठीक समझ में आता है। धर्म और सत्‍य के जितने भी आख्‍यान हैं, उन सबका यह सारभूत धन है। ऋग्‍वेद की दस हजार ऋचाओं का मन्‍थन करके यह अमृतमय सारत्तत्‍व निकाला गया है। बेटा! मनुष्‍य जैसे दही से मक्‍खन निकालते हैं और काठ से आग प्रकट करते हैं, उसी प्रकार मैंने भी विद्वानों के लिये ज्ञानजनक यह मोक्षशास्‍त्र शास्‍त्रों को मथकर निकाला है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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