त्रयधिकशततम (103) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने अनेक प्रकार के दान, शांति, सत्य और अहिंसा आदि का वर्णन किया। अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहने की बात वताई और दान के फल का भी निरूपण किया। आपकी जानकारी में तपोबल से बढ़कर दूसरा कौन-सा बल है? यदि आपकी राय में तपस्या से भी कोई उत्कृष्ट साधन हो तो हमारे समक्ष उसकी व्याख्या करें। भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! मनुष्य जितना तप करता है, उसी के अनुसार उसे उत्तम लोक प्राप्त होते हैं; किंतु कुन्तीकुमार मेरी राय में अनशन से बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है। इस विषय में विज्ञ पुरुष राजा भगीरथ और महात्मा ब्रह्मा जी के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। भारत! सुनने में आया है कि राजा भगीरथ देवलोक, गौओं के लोक और ऋषि लोक को भी लांघकर ब्रह्मलोक में जा पहुँचे। राजन! राजा भगीरथ को वहाँ उपस्थित देख ब्रह्मा जी ने उनसे पूछा- 'भगीरथ! इस लोक में आना बहुत ही कठिन है, तुम कैसे यहाँ आ पहुँचे। भगीरथ! देवता, गंधर्व और मनुष्य बिना तपस्या किये यहाँ नहीं आ सकते। फिर तुम कैसे यहाँ आ गये?' भगीरथ ने कहा- विद्वन! मैं ब्रह्मचर्य व्रत का आश्रय लेकर प्रतिदिन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं का ब्राह्मण के लिये दान किया करता था; परंतु उस दान के फल से मैं यहाँ नहीं आया हूँ। मैंने एक रात में पूर्ण होने वाले दस यज्ञ, पांच रातों में पूर्ण होने वाले दस यज्ञ, ग्यारह रातों में समाप्त होने वाले ग्यारह यज्ञ और ज्योतिष्टोम नामक एक सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया है, परंतु उन यज्ञों के फल से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। मैंने घोर तपस्या करते हुए लगातार सौ वर्षों तक प्रतिदिन गंगा जी के तट पर निवास किया है और वहाँ सहस्रों खच्चरियों तथा झुंड-की-झुंड कन्याओं का दान किया, उस पुण्य के प्रभाव से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। पुष्कर तीर्थ में जो सैकड़ों-हज़ारों बार मैंने ब्राह्मणों को एक लाख घोड़े और दो लाख गौएँ दान कीं तथा सोने के उत्तम चन्द्रहार धारण करने वाली जाम्बूनद के आभूषणों से विभूषित हुई साठ हज़ार सुन्दरी कन्याओं का जो सहस्रों बार दान किया, उस पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। लोकनाथ! गोसव नामक यज्ञ का अनुष्ठान करके उससे मैंने दूध देने वाली सौ करोड़ गौओं का दान किया। उस समय एक-एक ब्राह्मण को दस-दस गायें मिली थीं। प्रत्येक गाय के साथ उसी के समान रंग वाले बछड़े और सुवर्णमय दुग्धपात्र भी दिये गये थे; परंतु उस यज्ञ के पुण्य से भी मैं यहाँ तक नहीं पहूंचा हूँ। अनेक बार सोमयाग की दीक्षा लेकर उन यज्ञों में मैंने प्रत्येक ब्राह्मण को पहले बार की ब्यायी हुई दूध देने वाली दस-दस गौएँ और रोहिणी जाति की सौ-सौ गौएँ दान की हैं। ब्रह्मन! इनके अतिरिक्त भी मैंने दस बार दस-दस लाख दुधारू गौएँ दान की हैं; किंतु उस पुण्य से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। वाह्लीक देश में उत्पन्न हुए श्वेत रंग के एक लाख घोड़ों को सोने की मालाओं से सजाकर मैंने ब्राह्मण को दान किया; किंतु उस पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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