अष्टषष्टितम (68) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
देव! आप देवताओं के भी देवता हैं। महर्षि द्वैपायन आपके विषय में ऐसा ही कहते हैं। प्रथम प्रजासृष्टि के समय आपको ही दक्ष प्रजापति कहा गया है। आप ही सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा हैं- इस प्रकार अंगिरा मुनि आपके विषय में कहते हैं। अव्यक्त (प्रधान) आपके शरीर से उत्पन्न हुआ है, व्यक्त महत्त्वत्त्व आदि कार्यवर्ग आपके मन में स्थित है तथा सम्पूर्ण देवता भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा असित और देवल का कथन है। आपके मस्तक से द्युलोक और भुजाओं से भूलोक व्याप्त हैं। तीनों लोक आपके उदर में स्थित हैं। आप ही सनातन पुरुष हैं। तपस्या से शुद्ध अन्तःकरण वाले महात्मा पुरुष आपको ऐसा ही जानते हैं। आत्मसाक्षात्कार से तृप्त हुए ज्ञानी महर्षियों की दृष्टि में आप सबसे श्रेष्ठ हैं। मधुसूदन! जो सम्पूर्ण धर्मों में प्रधान और संग्राम से कभी पीछे हटने वाले नहीं है, उन उदार राजर्षियों के परम आश्रय भी आप ही हैं। इस प्रकार सनत्कुमार आदि योगवेत्ता पापापहारी आप भगवान पुरुषोत्तम की सदा ही स्तुति और पूजा करते हैं। तात दुर्योधन! इस तरह विस्तार और संक्षेप से मैंने तुम्हें भगवान केशव की यथार्थ महिमा बतायी है। अब तुम अत्यन्त प्रसन्न होकर उनका भजन करो। संजय कहते है- महाराज! भीष्म जी के मुख से यह पवित्र आख्यान सुनकर तुम्हारे पुत्र ने भगवान श्रीकृष्ण तथा महारथी पाण्डवों को बहुत महत्त्वशाली समझा। राजन्! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्मजी ने पुनः दुर्योधन से कहा- 'नरेश्वर! तुमने महात्मा केशव तथा नरस्वरूप् अर्जुन का यथार्थ माहात्म्य, जिसके विषय में तुम मुझसे पूछ रहे थे, मुझसे अच्छी तरह सुन लिया। ऋषि नर और नारायण जिस उद्देश्य से मनुष्यों में अवतीर्ण हुए हैं, वे दोनों अपराजित वीर जिस प्रकार युद्ध में अवध्य हैं तथा समस्त पाण्डव भी जिस प्रकार समरभूमि में किसी के लिये भी वध्य नहीं हैं, वह सब विषय तुमने अच्छी तरह सुन लिया। राजेन्द्र! भगवान श्रीकृष्ण यशस्वी पाण्डवों पर बहुत प्रसन्न हैं। इसीलिये मैं कहता हूँ कि पाण्डवों के साथ तुम्हारी संधि हो जाय। वे तुम्हारे बलवान् भाई हैं। तुम अपने मन को वश में रखते हुए उनके साथ मिलकर पृथ्वी का राज्य भोगो। भगवान नर-नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण) की अवहेलना करके तुम नष्ट हो जाओगे।' प्रजानाथ! ऐसा कहकर आपके ताऊ भीष्म जी चुप हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने राजा दुर्योधन को विदा किया और स्वयं शयन करने चले गये। भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधन भी महात्मा भीष्म को प्रणाम करके अपने शिविर में चला आया और अपनी शुभ्र शय्या पर सो गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में विश्वोपाख्यान विषयक अड़सठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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