महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-22

द्वशीति (82) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

Prev.png

महाभारत: उद्योग पर्व: द्वशीति अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
द्रौपदी का श्रीकृष्ण से अपना दु:ख सुनाना और श्रीकृष्ण का उसे आश्वासन देना
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सिर पर अत्यंत काले और लंबे केश धारण करने वाली द्रुपदराजकुमारी कृष्णा राजा युधिष्ठिर के धर्म और अर्थ से युक्त हितकर वचन सुनकर शोक से कातर हो उठी और महारथी सात्यकि तथा सहदेव की प्रशंसा करके वहाँ बैठे हुए दशार्हकुल भूषण श्रीकृष्ण से कुछ कहने को उद्यत हुई। (1-2)
  • भीमसेन को अत्यंत शांत देख मनस्विनी द्रौपदी के मन में बड़ा दु:ख हुआ। उसकी आँखों में आँसू भर आए और वह श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोली। (3)
  • 'धर्म के ज्ञाता महाबाहु मधुसूदन! आपको तो मालूम ही है कि मंत्रियों सहित धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने किस प्रकार शठता का आश्रय लेकर पांडवों को सुख से वंचित कर दिया। दशार्हनन्दन! राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहने के लिए संजय को एकांत में जो मंत्र [1] सुनाकर यहाँ भेजा था, वह भी आपको ज्ञात ही है तथा धर्मराज ने संजय से जैसी बातें कही थीं, उन सबको भी आपने सुन ही लिया है। (4-6)
  • 'महातेजस्वी केशव! इनहोनें संजय से इस प्रकार कहा था 'संजय! तुम दुर्योधन और उसके सुहृदों के सामने मेरी यह मांग रख देना- 'तात! तुम हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत तथा अंतिम पाँचवाँ कोई एक गाँव- इन पाँच गांवों को ही दे दो।' (7-8)
  • 'दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण! संधि की इच्छा रखने वाले श्रीमान युधिष्ठिर का यह नम्रतापूर्ण वचन सुनकर भी उसे दुर्योधन ने स्वीकार नहीं किया। (9)
  • 'भगवन! आपके वहाँ जाने पर यदि दुर्योधन राज्य दिये बिना ही संधि करना चाहे तो आप इसे किसी तरह स्वीकार न कीजिएगा। (10)
  • महाबाहो! पांडव लोग सृंजय वीरों के साथ क्रोध में भरी हुई दुर्योधन की भयंकर सेना का अच्छी तरह सामना कर सकते हैं। (11)
  • मधुसूदन! कौरवों के प्रति साम और दाननीति का प्रयोग करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। अत: उन पर आपको कभी कृपा नहीं करनी चाहिए। (12)
  • श्रीकृष्ण! अपने जीवन की रक्षा करने वाले पुरुष को चाहिए कि जो शत्रु साम और दान से शांत न हों, उन पर दंड का प्रयोग करे। (13)
  • अत: महाबाहु अच्युत! आपको तथा सृंजयों सहित पांडवों को उचित है कि वे उन शत्रुओं को शीघ्र ही महान दंड दें। (14)
  • यही कुंतीकुमारों के योग्य कार्य है। श्रीकृष्ण! यदि यह किया जाये तो आपके भी यश का विस्तार होगा और समस्त क्षत्रिय समुदाय को भी सुख मिलेगा। (15)
  • दशार्हनन्दन! अपने धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय को चाहिए कि वह लोभ का आश्रय लेने वाले मनुष्य को भले ही वह क्षत्रिय हो या अक्षत्रिय, अवश्य मार डाले। (16)
  • तात! ब्राह्मणों के सिवा दूसरे वर्णों पर ही यह नियम लागू होता है। ब्राह्मण सब पापों में डूबा हो, तब भी उसे प्राणदंड नहीं देना चाहिए; क्योंकि ब्राह्मण सब वर्णों का गुरु तथा दान में दी हुई वस्तुओं का सर्वप्रथम भोक्ता है अर्थात पहला पात्र है | (17)
  • जनार्दन! जैसे अवध्य का वध करने पर महान दोष लगता है, उसी प्रकार वध्य का वध न करने से भी दोष की प्राप्ति होती है। यह बात धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं। (18)
  • श्रीकृष्ण! आप सैनिकों सहित सृंजयों, पांडवों तथा यादवों के साथ ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे आपको यह दोष न छू सके। (19)
  • जनार्दन! आप पर अत्यंत विश्वास होने के कारण मैं अपनी कही हुई बात को पुन: दुहराती हूँ। केशव! इस पृथ्वी पर मेरे समान स्त्री कौन होगी?। (20)
  • मैं महाराज द्रुपद की पुत्री हूँ। यज्ञ वेदी के मध्य भाग से मेरा जन्म हुआ है। श्रीकृष्ण! मैं वीर धृष्टद्युम्न की बहिन और आपकी प्रिय सखी हूँ | (21)
  • मैं परम प्रतिष्ठित अजमीढ़कुल में ब्याहकर आई हूँ। महात्मा राजा पांडु की पुत्रवधू तथा पाँच इन्द्रों के समान तेजस्वी पाण्डुपुत्रों की पटरानी हूँ |(22)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपना विचार

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः