महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 82 श्लोक 23-41

द्वशीति (82) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्वशीति अध्याय: श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद
  • पाँच वीर पतियों से मैंने पाँच महारथी पुत्रों को जन्म दिया है। श्रीकृष्ण! जैसे अभिमन्यु आपका भांजा है, उसी प्रकार मेरे पुत्र भी धर्मत: आपके भांजे ही हैं। (23)
  • केशव! इतनी सम्मानित और सौभाग्यशालिनी होने पर भी मैं पांडवों के देखते-देखते और आपके जीते-जी केश पकड़कर सभा में लायी गयी और मेरा बारंबार अपमान किया गया एवं मुझे क्लेश दिया गया। (24)
  • पांडवों, पांचालों और यदुवंशियों के जीते-जी मैं पापी कौरवों की दासी बनी और उसी रूप में सभा के बीच मुझे उपस्थित होना पड़ा। (25)
  • पांडव यह सब कुछ देख रहे थे, तो भी न तो इनका क्रोध ही जागा और न इन्होंने मुझे उनके हाथ से छुड़ाने की चेष्ठा ही की। उस समय मैंने अत्यंत असहाय होकर मन ही मन आपका चिंतन किया और कहा- 'गोविंद! मेरी रक्षा कीजिये' प्रभो! तब आपने ही कृपा करके मेरी लाज बचाई। (26)
  • उस सभा में मेरे ऐश्वर्यशाली राजा धृतराष्ट्र ने मुझे आदर देते हुए कहा- 'पांचालराजकुमारी! मैं तुम्हें अपनी ओर से मनोवांछित वर पाने के योग्य मानता हूँ। तुम कोई वर माँगों।' (27)
  • तब मैंने उनसे कहा- 'पांडव रथ और आयुधों सहित दासभाव से मुक्त हो जाएँ।' केशव! मेरे इतना कहने पर ये लोग वनवास का कष्ट भोगने के लिए दासभाव से मुक्त हुए थे। (28)
  • जनार्दन! हम लोगों पर ऐसे-ऐसे महान दु:ख आते रहे हैं, जिन्हें आप अच्छी तरह जानते हैं। कमलनयन! पति, कुटुंबी तथा बांधवजनों सहित हम लोगों की आप रक्षा करें। (29)
  • श्रीकृष्ण! मैं धर्मत: भीष्म और धृतराष्ट्र दोनों की ही पुत्रवधू हूँ, तो भी उनके सामने ही मुझे बलपूर्वक दासी बनाया गया। (30)
  • भगवन! ऐसी दशा में यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित रहता है तो अर्जुन के धनुषधारण और भीमसेन के बल को धिक्कार है। (31)
  • श्रीकृष्ण! यदि मैं आपकी अनुग्रहभाजन हूँ, यदि मुझ पर आपकी कृपा है तो आप धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पूर्ण रूप से क्रोध कीजिये। (32)
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर सुंदर अंगों वाली, श्यामलोचना, कमलनयनी एवं गजगामिनी द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने उन केशों को, जो देखने में अत्यंत सुंदर, घुँघराले, अत्यंत काले, एकत्र आबद्ध होने पर भी कोमल, सब प्रकार की सुगंधों से सुवासित, सभी शुभ लक्षणों से सुशोभित तथा विशाल सर्प के समान कांतिमान थे, बाएँ हाथ में लेकर कमलनयन श्रीकृष्ण के पास गयी और नेत्रों में आँसू भरकर इस प्रकार बोली- (33-35)
  • 'कमललोचन श्रीकृष्ण! शत्रुओं के साथ संधि की इच्छा से आप जो-जो कार्य या प्रयत्न करें, उन सब में दु:शासन के हाथों से खींचे हुए इन केशों को याद रखें। (36)
  • 'श्रीकृष्ण! यदि भीमसेन और अर्जुन कायर होकर कौरवों के साथ संधि की कामना करने लगे हैं, तो मेरे वृद्ध पिताजी अपने महारथी पुत्रों के साथ शत्रुओं से युद्ध करेंगे। (37)
  • 'मधुसूदन! मेरे पाँच महापराक्रमी पुत्र भी वीर अभिमन्यु को प्रधान बनाकर कौरवों के साथ संग्राम करेंगे। (38)
  • 'यदि मैं दु:शासन की साँवली भुजा को कटकर धूल में लोटती न देखूँ तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी? (39)
  • 'प्रज्वलित अग्नि के समान इस प्रचंड क्रोध को हृदय में रखकर प्रतीक्षा करते मुझे तेरह वर्ष बीत गए हैं। (40)
  • 'आज भीमसेन के संधि के लिए कहे गए वचन मेरे हृदय में बाण के समान लगे हैं, जिनसे पीड़ित होकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय! ये महाबाहु आज मेरे अपमान को भुलाकर केवल धर्म का ही ध्यान धर रहे हैं।' (41)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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