चतुःसप्ततितम (74) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चतुःसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
दमयन्ती बोली- केशिनी! जाओ और पता लगाओ कि यह छोटी-छोटी बांहों वाला पुरुष रथवाहक, जो रथ के पिछले भाग में बैठा है, कौन है? भद्रे! इसके निकट जाकर सावधानी के साथ मधुर वाणी में कुशल पूछना। अनिन्दिते! साथ ही इस पुरुष के विषय में ठीक-ठीक बाते जानने की चेष्टा करना। इसके विषय में मुझे बड़ी भारी शंका है। सम्भव है, इस वेष में राजा नल ही हों। मेरे मन में जैसा संतोष है और हृदय में जैसी शांति है, उससे मेरी उक्त धारणा पुष्ट हो रही है। सुश्रोणि! तुम बातचीत के सिलसिलें में इसके सामने पर्णाद ब्राह्मण वाली बात कहना और अनिन्दिते! यह जो उत्तर दे, उसे अच्छी तरह समझना।' तब वह दूती बड़ी सावधानी से वहाँ जाकर बाहुक से वार्तालाप करने लगी और कल्याणी दमयन्ती भी महल में उसके लौटने की प्रतीक्षा में बैठी रही। केशिनी ने कहा- 'नरेन्द्र! आपका स्वागत है! मैं आपका कुशल समाचार पूछती हूँ। पुरुषश्रेष्ठ! दमयन्ती की कही हुई यह उत्तम बातें सुनिये। विदर्भ राजकुमारी यह सुनना चाहती हैं कि आप लोग अयोध्या से कब चले हैं और किसलिये यहाँ आये हैं? आप न्याय के अनुसार ठीक-ठीक बतायें।' बाहुक बोला- 'महात्मा कोसलराज ने एक ब्राह्मण के मुख से सुना था कि कल दमयन्ती का द्वितीय स्वयंवर होने वाला है। यह सुनकर राजा हवा के समान वेगशाली और सौ योजन तक दौड़ने वाले अच्छे घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार हो विदर्भ प्रदेश के लिये प्रस्थित हो गये। इस यात्रा में मैं ही इनका सारथि था।' केशिनी ने पूछा- 'आप लोगों में से जो तीसरा व्यक्ति है, वह कहाँ से आया है अथवा किसका सेवक है? ऐसे ही आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं और आप पर इस कार्य का भार कैसे आया है?' बाहुक बाला- 'भद्रे! उस तीसरे व्यक्ति का नाम वार्ष्णेय है, वह पुण्यश्लोक राजा नल का सारथि है। नल के वन में निकल जाने पर वह ऋतुपर्ण की सेवा में चला गया है। मैं भी अश्वविद्या में कुशल हूँ और सारथि के कार्य में भी निपुण हूं, इसलिये राजा ऋतुपर्ण ने स्वयं ही मुझे वेतन देकर सारथि के पद पर नियुक्त कर लिया।' केशिनी ने पूछा- 'बाहुक! क्या वार्ष्णेय यह जानता है कि राजा नल कहाँ चले गये, उसने आपसे महाराज के सम्बन्ध में कैसी बात बतायी है?' बाहुक बोला- 'भद्रे! पुण्यकर्मा नल के दोनों बालकों को यहीं रखकर वार्ष्णेय अपनी रुचि के अनुसार अयोध्या चला गया था। यह नल के विषय में कुछ नहीं जानता है। यशस्विनी! दूसरा कोई पुरुष भी नल को नहीं जानता। राजा नल का पहला रूप अदृश्य हो गया है। वे इस जगत् में गूढ़भाव से विचरते हैं। परमात्मा ही नल को जानते हैं तथा उसकी जो अन्तरात्मा है, वह उन्हें जानती है, दूसरा कोई नहीं; क्योंकि राजा नल अपने लक्षणों और चिह्नों को कभी दूसरों के सामने नहीं प्रकट करते हैं।' केशिनी ने कहा- 'पहली बार अयोध्या में जब वे ब्राह्मण देवता गये थे, तब उन्होंने स्त्रियों की सिखायी हुई निम्नांकित बातें बार-बार कहीं थी- ‘ओ जुआरी प्रियतम! तुम अपने प्रति अनुराग रखने वाली वन में सोयी हुई मुझ प्यारी पत्नी को छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्र को फाड़कर कहाँ चल दिये?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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