महाभारत वन पर्व अध्याय 278 श्लोक 1-14

अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम (278) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


मृगरूपधारी मारीच का वध तथा सीता का अपहरण

मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर! रावण को आया देख मारीच सहसा उठकर खड़ा हो गया और उसने फल-मूल आदि अतिथि सत्कार की सामग्रियों द्वारा उसका फिर पूजन किया। जब रावण बैठकर विश्राम कर चुका, तब उसके पास बैठ बातचीत करने में कुशल राक्षस मारीच ने वाक्य का मर्म समझने में निपुण रावण से विनयपूर्व कहा- ‘लंकेश्वर! तुम्हारे शरीर का रंग ठीक हालत में नहीं है। तुम उदास दिखायी देते हो। तुम्हारे नगर में कुशल तो है न? समसत प्रजा और मन्त्री आदि पहले की भाँति तुम्हारी सेवा करते हैं न? राक्षसराज! कौन-सा ऐसा कार्य आ गया है, जिसके लिये तुम्हें यहाँ तक आना पड़ा? यदि वह मेरे द्वारा साध्य है, तो कितना ही कठिन क्यों न हो, उसे किया हुआ ही समझो’।

रावण क्रोध और अमर्ष में भरा हआ था। उसने एक-एक करके राम द्वारा किये हुए सब कार्य संक्षेप से कह सुनाये। मारीच ने सारी बातें सुनकर थोड़े में ही रावण को समझाते हुए कहा- ‘दशानन! तुम श्रीराम से भिड़ने का साहस न करो। मैं उनके पराक्रम को जानता हूँ। भला! इस जगत् में कौन ऐसा वीर है, जो परमात्मा श्रीराम के बाणों का वेग सह सके? मैं जो यहाँ संन्यासी बना बैठा हूँ, इसमें भी वे पुरुषरत्न श्रीराम ही कारण हैं। श्रीराम से वैर मोल लेना विनाश के मुख में जाना है, किस दुरात्मा ने तुम्हें ऐसी सलाह दी है?’

मारीच की बात सुनकर रावण और भी कुपित हो उठा और उसे डाँटते हुए बोला- ‘मारीच! यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा, तो भी तेरी मृत्यु निश्चित है।' मारीच ने सोचा, ‘यदि मृत्यु निश्चित ही है, तो श्रेष्ठ पुरुष के हाथ से ही मरना आच्छा होगा; अतः रावण का जो अभीष्ट कार्य है, उसे अवश्य करूँगा’। तदनन्तर उसने राक्षसराज रावण से कहा- ‘अच्छा; बताओ, मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी? इच्छा न होने पर भी मैं विवश होकर उसे करूँगा’। तब दशानन ने उससे कहा- ‘तुम ऐसे मनोहर मृग का रूप धारण करो, जिसके सींग रत्नमय प्रतीत हों और शरीर के रोएँ भी रत्नों के ही समान चित्र-विचित्र दिखायी दें। फिर राम के आश्रम पर जाओ और सीता को लुभाओ। सीता तुम्हें देख लेने पर निश्चय ही राम से यह अनुरोध करेंगी कि ‘आप इस मृग का पकड़ लाइये’। तुम्हारे पीछे राम के अपने आश्रम से दूर निकल जाने पर सीता को वश में लाना सहज हो जायेगा। मैं उसे आश्रम से हरकर ले जाऊँगा और दुर्बुद्धि राम अपनी प्यारी पत्नी के वियोग में व्याकुल होकर प्राण दे देगा। बस मेरी इतनी ही सहायता कर दो।'

रावण के ऐसा कहने पर मारीच स्वयं ही अपना श्राद्ध-तर्पण करके अत्यन्त दु:खी होकर आगे जाते हुए रावण के पीछे-पीछे चला।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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