महाभारत वन पर्व अध्याय 165 श्लोक 1-14

पंचषष्टयधिकशततम (165) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का गन्धमादन पर्वत पर आकर अपने भाइयों से मिलना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर किसी समय हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ देवराज इन्द्र का रथ सहसा आकाश में प्रकट हुआ, मानो बिजली चमक उठी हो। उसे देखकर अर्जुन का चिन्तन करते हुए महारथी पाण्डवों को बड़ा हर्ष हुआ। उस रथ पर संचालन मातलि कर रहे थे। वह दीप्तिमान रथ सहसा अन्तरिक्ष लोक को प्रकाशित करता हुआ इस प्रकार सुशोभित होने लगा, मानो बादलों के भीतर बड़ी भारी उल्का प्रकट हुई हो अथवा अग्नि की धूमरहित ज्वाला प्रज्वलित हो उठी हो। उस दिव्य रथ पर बैठे हुए किरीटधारी अर्जुन स्पष्ट दिखायी देने लगे। उनके कण्ठ में दिव्य हार शोभा पा रहा था और उन्होंने स्वर्गलोक के नूतन आभूषण धारण कर रखे थे।

उस समय धनंजय का प्रभाव वज्रधारी इन्द्र के समान जान पड़ता था। वे अपनी दिव्य कान्ति से प्रकाशित होते हुए गन्धमादन पर्वत पर आ पहुँचे। पर्वत पर पहुँचकर बुद्धिमान् किरीटधारी अर्जुन देवराज इन्द्र के उस दिव्य रथ से उतर पडे। उस समय सबसे पहले उन्होंने महर्षि धौम्य के दोनों चरणों में मस्तक झुकाया। तदनन्तर अजातशत्रु युधिष्ठिर तथा भीमसेन के चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद नकुल और सहदेव ने आकर अर्जुन को प्रणाम किया। तत्पश्चात् द्रौपदी से मिलकर अर्जुन ने उसे बहुत आश्वासन दिया और अपने भाई युधिष्ठिर के समीप आकर वे विनीत भाव से खड़े हो गये। अप्रमेय वीर अर्जुन से मिलकर सब पाण्डवों को बड़ा हर्ष हुआ। अर्जुन भी उन सबसे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए तथा राजा युधिष्ठिर की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

नमुचिनाशक इन्द्र ने जिस पर बैठकर दैत्यों के सात यूथों का संहार किया था, उस इन्द्ररथ के समीप जाकर उदारहृदय वाले कुन्तीपुत्रों ने उसकी परिक्रमा की। साथ ही, उन्होंने अत्यन्त हर्ष में भरकर मातलि का देवराज इन्द्र के समान सर्वोत्तम विधि से सत्कार किया। इसके बाद उन पाण्डवों ने मातलि से सम्पूर्ण देवतओं का यथावत् कुशल समाचार पूछा। मातलि ने भी पाण्डवों का अभिनन्दन किया और जैसे पिता पुत्र को उपदेश देता है, उसी प्रकार पाण्डवों को कर्तव्य की शिक्षा देकर वे पुनः अपने अनुपम कान्तिशाली रथ के द्वारा स्वर्गलोक के स्वामी इन्द्र के समीप चले गये। मातलि के चले जाने पर इन्द्रशत्रुओं का संहार करने वाले देवेन्द्रकुमार नृपश्रेष्ठ महात्मा श्रीमान् अर्जुन ने, जो साक्षात् सहस्रलोचन इन्द्र के समान प्रतीत होते थे, अपने शरीर से उतारकर इन्द्र के दिये हुए बहुमूल्य, उत्तम तथा सूर्य के समान देदीप्यमान दिव्य आभूषण अपनी प्रियतमा सुतसोम की माता द्रौपदी को समर्पित कर दिये।

तदनन्तर उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों तथा सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियों के बीच में बैठकर अर्जुन ने अपना सब समाचार यथावत् रूप से कह सुनाया। 'मैंने अमुक प्रकार से इन्द्र, वायु और साक्षात् शिव से दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की है। मेरे शील स्वभाव तथा चित्त की एकाग्रता से इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता मुझ पर बहुत प्रसन्न रहते थे।' निर्दोष कर्म करने वाले अर्जुन ने अपने स्वर्गीय प्रवास का सब समाचार उन सब को संक्षेप से बताकर नकुल-सहदेव के साथ निश्चित होकर उस आश्रय में शयन किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवच युद्धपर्व में अर्जुन समागम विषयक एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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